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|रचनाकार=अशोक अंजुम
|अनुवादक=
|संग्रह=अशोक अंजुम की ग़जलें / अशोक अंजुम
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
वो मिले यूँ कि फिर जुदा ही न हो
ऐसा माने कि फिर ख़फ़ा ही न हो
मैं समझ जाऊँ सारे मजमूँ को
ख़त में उसने जो कुछ लिखा ही न हो
कैसे मुमकिन है उसने महफ़िल में
मेरे बारे में कुछ कहा ही न हो
मेरे इज़हार पे वो कुछ यूँ था
जैसे उसने कि कुछ सुना ही न हो
कितनी हसरत थी उससे मिलने की
वो मिला यूँ कि जानता ही न हो
अब ये झंझट सहन नहीं होता
वो मरज दे कि फिर दवा ही न हो
</poem>
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<poem>
वो मिले यूँ कि फिर जुदा ही न हो
ऐसा माने कि फिर ख़फ़ा ही न हो
मैं समझ जाऊँ सारे मजमूँ को
ख़त में उसने जो कुछ लिखा ही न हो
कैसे मुमकिन है उसने महफ़िल में
मेरे बारे में कुछ कहा ही न हो
मेरे इज़हार पे वो कुछ यूँ था
जैसे उसने कि कुछ सुना ही न हो
कितनी हसरत थी उससे मिलने की
वो मिला यूँ कि जानता ही न हो
अब ये झंझट सहन नहीं होता
वो मरज दे कि फिर दवा ही न हो
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