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<poem>
वो मिले यूँ कि फिर जुदा ही न हो
ऐसा माने कि फिर ख़फ़ा ही न हो

मैं समझ जाऊँ सारे मजमूँ को
ख़त में उसने जो कुछ लिखा ही न हो

कैसे मुमकिन है उसने महफ़िल में
मेरे बारे में कुछ कहा ही न हो

मेरे इज़हार पे वो कुछ यूँ था
जैसे उसने कि कुछ सुना ही न हो

कितनी हसरत थी उससे मिलने की
वो मिला यूँ कि जानता ही न हो

अब ये झंझट सहन नहीं होता
वो मरज दे कि फिर दवा ही न हो
</poem>
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