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|रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव
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|संग्रह=यादों के रजनीगंधा / संतोष श्रीवास्तव
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<poem>
बिन रंग ,कूची ,कैनवास के
वह रच डालता है
सुरम्य बालू के तट पर
आकृतियाँ

दोनों हाथों से बालू बटोर
बनाता है
जानी पहचानी आकृतियाँ
जिनमें सुगबुगाता है
प्रेम ,विश्वास, समर्पण, श्रद्धा
जीवंत होते हैं
राधा कृष्ण ,शिव पार्वती
बुद्ध, गांधी ,हीर रांझा
दोना पाउला
और उसके कांच से सपने
जो आकृतियों पर फेंके
सैलानियों के सिक्कों से होकर
पेट तक पहुँचते हैं
उसके हुनर से बड़ी है
पेट की दुनिया

डरता है वह
समंदर के ज्वार से
लहरों के उफान से
बरसात से
और सूने पड़े तट से

कि लहरें अपनी कठोर बाहों में
समो लेती हैं आकृतियाँ
वह देखता है
सपनों के टूटे कांच में
आकृतियों की टूटन
सहता है दर्द ,देर तलक
ऐसा अक्सर होता है
</poem>
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