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<poem>
किसी में गर भँवर से पार जाने का हुनर है
वही मेरी नज़र में इस जहाँ में नामवर है

अगर सच बोलने का कर लिया तुमने इरादा
तो समझो ओखली में दे दिया तुमने भी सर है

सुना है जानवर इंसान अब होने लगे हैं
सुना है आदमी होने लगा अब जानवर है

बुलन्दी की तमन्ना में सितारे हो गए गुम
वो क्या जानें फलक का हो गया छलनी जिगर है

मुखौटे आज अपने आप पर इतरा रहे हैं
उन्हें यूँ देख चेहरों का गया चेहरा उतर है

अमीरे इश्क़ मैं उसको यहाँ पर मानता हूँ
छुपाए फिर रहा दिल में जो ग़म का मालो जर है

मेरी कश्ती हुई गिर्दाब से उस पार तब से
बहुत सदमे में तब से लग रहा मुझको भँवर है
</poem>
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