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|संग्रह=लिक्खा मैंने भोगा सच / अमर पंकज
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<poem>
क्या हुआ क्या बताता रहा उम्र भर
ग़म हँसी में उड़ाता रहा उम्र भर।

हाल अपना किसी को जताता नहीं,
अश्क अपने छिपाता रहा उम्र भर।

साथ चलते रहे पर मिले हम नहीं,
जिस्मो-जाँ मैं जलाता रहा उम्र भर।

दर्मियाँ बढ़ गये और भी फ़ासले,
वक़्त गुज़रा सताता रहा उम्र भर।

रेत पर मैं चला बीहड़ों में रहा,
ग़म की गठरी उठाता रहा उम्र भर।

आँधियाँ गर थमे तो बता दूँ तुझे,
रस्मे-उल्फ़त निभाता रहा उम्र भर।

रंज-ए-फ़ुर्क़त ‘अमर’ झेलता ही रहा,
घर धुएँ का बनाता रहा उम्र भर।
</poem>
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