भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिव मोहन सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शिव मोहन सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
एक रात बीत गयी ,
गाँव में हमारे ।
रागरंग बाँध गयी,
पाँव के सहारे॥
अँधियारी कुंडी को,
एक लहर खोल गयी ।
कोयलिया कलरव में,
मधुराई घोल गयी ।
ताल को हिलोर गयी,
पंख के सहारे ॥
रेत के घरौंदे में ,
नेह का बुलावा है।
टूटती लकीरों में,
घूरता छलावा है।
रेशम की डोली से,
धूप को उतारे ॥
लहरा के बाली ने,
रूप को निखारा है।
एक - एक दाने को,
सूप ने उबारा है।
निहुर-निहुर अंगड़ाई
अंगना बुहारे ॥
भाव जगे रंग सजे,
गंध भी बिखेर गयी ।
निंद में जवानी को,
धीरे से टेर गयी ।
आस भरी ओस आज,
आरती उतारे ॥
मुस्काती एक किरण,
पर्वत को लाँघ गयी ।
रंग-ढंग बिखरे तो,
एक डोर बाँध गयी ।
माथ की लकीरों को,
स्वेद से सँवारे॥
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=शिव मोहन सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
एक रात बीत गयी ,
गाँव में हमारे ।
रागरंग बाँध गयी,
पाँव के सहारे॥
अँधियारी कुंडी को,
एक लहर खोल गयी ।
कोयलिया कलरव में,
मधुराई घोल गयी ।
ताल को हिलोर गयी,
पंख के सहारे ॥
रेत के घरौंदे में ,
नेह का बुलावा है।
टूटती लकीरों में,
घूरता छलावा है।
रेशम की डोली से,
धूप को उतारे ॥
लहरा के बाली ने,
रूप को निखारा है।
एक - एक दाने को,
सूप ने उबारा है।
निहुर-निहुर अंगड़ाई
अंगना बुहारे ॥
भाव जगे रंग सजे,
गंध भी बिखेर गयी ।
निंद में जवानी को,
धीरे से टेर गयी ।
आस भरी ओस आज,
आरती उतारे ॥
मुस्काती एक किरण,
पर्वत को लाँघ गयी ।
रंग-ढंग बिखरे तो,
एक डोर बाँध गयी ।
माथ की लकीरों को,
स्वेद से सँवारे॥
</poem>