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|रचनाकार=भव्य भसीन
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|संग्रह=
}}
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<poem>
जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ,
सारा वातावरण खिल जाता है।
ऐसा होता है क्योंकि मैं तुम्हारी हो चुकी हूँ और तुम मेरे।
पास आकर अपना करकमल मेरे हृदय पर रखते हो।
तुम ऐसा ही कुछ सदा से करते हो।
जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ।
ज्ञात है तुम्हें, निकट तुम्हारे हरदम मैं रहना चाहती हूँ।
जानते हो प्रतीक्षा भी अधिक तुम्हारी,
मैं सह नहीं पाती हूँ।
विदित हो उन भावों से
जो रह रहकर मुझे छिन्न भिन्न करते हैं।
तब निर्विलम्ब सामने से खिलखिला कर
हास परिहास करते हो।
जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ।
सुनो ना, तुम मुझे बड़े ही चंचल लगते हो।
कभी आते कभी जाते मधुर पवन के बन्धु लगते हो।
सुंदरता में हर उपमा को असफ़ल करते हो और
मासूम नयनों से अपने मुझसे अपरिमित स्नेह करते हो।
जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ।
मैं तुम्हें प्राणेश्वर कहती हूँ, मेरे प्राणेश्वर कहती हूँ
और इसी बीच तुम मेरा आलिंगन कर लेते हो।
भुजा पाश खोल इस खंडित मूर्ति की,
अपने वपु मंदिर में स्थापना करते हो।
बहुत प्यार से अपने अंक में मुझे भर कर रखते हो।
तुम ऐसा ही कुछ सदा से करते हो,
जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ।
</poem>
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जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ,
सारा वातावरण खिल जाता है।
ऐसा होता है क्योंकि मैं तुम्हारी हो चुकी हूँ और तुम मेरे।
पास आकर अपना करकमल मेरे हृदय पर रखते हो।
तुम ऐसा ही कुछ सदा से करते हो।
जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ।
ज्ञात है तुम्हें, निकट तुम्हारे हरदम मैं रहना चाहती हूँ।
जानते हो प्रतीक्षा भी अधिक तुम्हारी,
मैं सह नहीं पाती हूँ।
विदित हो उन भावों से
जो रह रहकर मुझे छिन्न भिन्न करते हैं।
तब निर्विलम्ब सामने से खिलखिला कर
हास परिहास करते हो।
जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ।
सुनो ना, तुम मुझे बड़े ही चंचल लगते हो।
कभी आते कभी जाते मधुर पवन के बन्धु लगते हो।
सुंदरता में हर उपमा को असफ़ल करते हो और
मासूम नयनों से अपने मुझसे अपरिमित स्नेह करते हो।
जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ।
मैं तुम्हें प्राणेश्वर कहती हूँ, मेरे प्राणेश्वर कहती हूँ
और इसी बीच तुम मेरा आलिंगन कर लेते हो।
भुजा पाश खोल इस खंडित मूर्ति की,
अपने वपु मंदिर में स्थापना करते हो।
बहुत प्यार से अपने अंक में मुझे भर कर रखते हो।
तुम ऐसा ही कुछ सदा से करते हो,
जब मैं मुख से प्राणेश्वर कहती हूँ।
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