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|रचनाकार= पूनम चौधरी
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हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को बस्तों में भरकर,
सभ्यताओं के ऋण सदृश
कंधों पर लादे,
वे बच्चे चले जा रहे हैं —
हर सुबह, हर गली, हर निर्देश के पीछे।
हर पुस्तक अब एक पत्थर है,
हर सूत्र — एक अनुत्तरित आदेश।
वे चलते हैं रोज़, कतारबद्ध,
जैसे ज्ञान का कोई निर्जीव कारख़ाना हो
और वे — कच्चा माल,
जिसे आकार नहीं, उपयोगिता दी जानी है।
उनकी आँखों में अब कोई कहानी नहीं जलती,
बल्कि स्क्रीन की कृत्रिम रौशनी
दृष्टि नहीं, दृष्टिकोण को बुझा चुकी है।
खेल के मैदानों में अब घास उग आई है,
और बचपन की जगह
समय की सुइयाँ भाग रही हैं।
शिक्षा अब स्पर्श और स्पंदनहीन है —
न उसमें मिट्टी की गंध है,
न शोर की कोई लय।
कक्षाएँ मौन हैं —
जैसे शब्दों की साँझ हो चुकी हो।
शिक्षक अब सूचनाएँ सुनाते हैं,
पाठ्यक्रम पूरा कराते हैं
प्रश्नों से कतराते हैं।
छात्र अब दोहराते हैं —
सीमित, शुष्क, अचिंत्य सूचनाएँ।
एक बच्चे ने पूछा था —
"सूरज क्यों डूबता है?"
शिक्षक ने कहा —
"यह पाठ्यक्रम में नहीं है।"
और उस दिन के बाद
वह बच्चा कभी नहीं डूबा —
पर उगा भी नहीं।
हमने सिखाया —
कल्पना भ्रम है,
व्याकरण नियम है,
सोचने से अधिक मूल्य
स्मृति और अंक का है।
और इस तरह
हमने इस नयी पौध को
उसके ही भविष्य से बेदखल कर दिया।
पर अभी भी शेष है समय।
कहीं किसी गाँव में
एक वट-वृक्ष के नीचे कोई गाथा कह रहा है।
कहीं कोई बच्चा
अपनी माँ से पूछ रहा है —
"धरती का रंग बदलता क्यों है?"
कहीं कोई शिक्षक
कक्षा के वातायन खोल रहा है,
ताकि हवा आए —
और कोई विचार उड़ सके।
हमें देना होगा शिक्षा को पुनर्जीवन —
जैसे सूखी मिट्टी में पहला बीज टपकता है।
हमें स्कूलों को फिर से गुरुकुल बनाना होगा,
जहाँ डर नहीं, सहज विश्वास हो।
जहाँ बच्चे पाठ्यक्रम से अधिक
पृथ्वी, समय, मनुष्य और मौन को समझें।
जहाँ गणित, मात्र गणना नहीं,
अनुपात हो जीवन और तर्क का।
जहाँ इतिहास
सिर्फ सम्राटों की विजयगाथा नहीं,
बल्कि किसान की थकान भी दर्ज करे।
जहाँ विज्ञान
सूत्रों और आविष्कारों से अधिक,
प्रश्न पूछने की भूख सिखाए।
शिक्षा एक वाद्य है —
लेकिन सार्थक तभी है
जब वह हर बालक के आत्म-स्वर में बज सके।
हर बच्चा एक राग है —
जिसे बाँधना नहीं,
बस धैर्य से सुनना चाहिए।
जब बच्चा
चेहरे पर निश्छल मुस्कान भरे स्कूल पहुँचे —
तो वह किसी संस्था में नहीं,
एक संसार में प्रवेश कर रहा हो।
और जब वह लौटे —
तो उसकी आँखों में
कोई जिज्ञासा झिलमिला रही हो —
जैसे निर्मल जल पर
गिरा हुआ कोई चंद्रबिंब।
तभी हम समझ पाएँगे मर्म शिक्षा का!
तभी हम कह सकेंगे —
हमने उन्हें पढ़ाया नहीं,
बल्कि उन्हें उगने दिया।
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हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को बस्तों में भरकर,
सभ्यताओं के ऋण सदृश
कंधों पर लादे,
वे बच्चे चले जा रहे हैं —
हर सुबह, हर गली, हर निर्देश के पीछे।
हर पुस्तक अब एक पत्थर है,
हर सूत्र — एक अनुत्तरित आदेश।
वे चलते हैं रोज़, कतारबद्ध,
जैसे ज्ञान का कोई निर्जीव कारख़ाना हो
और वे — कच्चा माल,
जिसे आकार नहीं, उपयोगिता दी जानी है।
उनकी आँखों में अब कोई कहानी नहीं जलती,
बल्कि स्क्रीन की कृत्रिम रौशनी
दृष्टि नहीं, दृष्टिकोण को बुझा चुकी है।
खेल के मैदानों में अब घास उग आई है,
और बचपन की जगह
समय की सुइयाँ भाग रही हैं।
शिक्षा अब स्पर्श और स्पंदनहीन है —
न उसमें मिट्टी की गंध है,
न शोर की कोई लय।
कक्षाएँ मौन हैं —
जैसे शब्दों की साँझ हो चुकी हो।
शिक्षक अब सूचनाएँ सुनाते हैं,
पाठ्यक्रम पूरा कराते हैं
प्रश्नों से कतराते हैं।
छात्र अब दोहराते हैं —
सीमित, शुष्क, अचिंत्य सूचनाएँ।
एक बच्चे ने पूछा था —
"सूरज क्यों डूबता है?"
शिक्षक ने कहा —
"यह पाठ्यक्रम में नहीं है।"
और उस दिन के बाद
वह बच्चा कभी नहीं डूबा —
पर उगा भी नहीं।
हमने सिखाया —
कल्पना भ्रम है,
व्याकरण नियम है,
सोचने से अधिक मूल्य
स्मृति और अंक का है।
और इस तरह
हमने इस नयी पौध को
उसके ही भविष्य से बेदखल कर दिया।
पर अभी भी शेष है समय।
कहीं किसी गाँव में
एक वट-वृक्ष के नीचे कोई गाथा कह रहा है।
कहीं कोई बच्चा
अपनी माँ से पूछ रहा है —
"धरती का रंग बदलता क्यों है?"
कहीं कोई शिक्षक
कक्षा के वातायन खोल रहा है,
ताकि हवा आए —
और कोई विचार उड़ सके।
हमें देना होगा शिक्षा को पुनर्जीवन —
जैसे सूखी मिट्टी में पहला बीज टपकता है।
हमें स्कूलों को फिर से गुरुकुल बनाना होगा,
जहाँ डर नहीं, सहज विश्वास हो।
जहाँ बच्चे पाठ्यक्रम से अधिक
पृथ्वी, समय, मनुष्य और मौन को समझें।
जहाँ गणित, मात्र गणना नहीं,
अनुपात हो जीवन और तर्क का।
जहाँ इतिहास
सिर्फ सम्राटों की विजयगाथा नहीं,
बल्कि किसान की थकान भी दर्ज करे।
जहाँ विज्ञान
सूत्रों और आविष्कारों से अधिक,
प्रश्न पूछने की भूख सिखाए।
शिक्षा एक वाद्य है —
लेकिन सार्थक तभी है
जब वह हर बालक के आत्म-स्वर में बज सके।
हर बच्चा एक राग है —
जिसे बाँधना नहीं,
बस धैर्य से सुनना चाहिए।
जब बच्चा
चेहरे पर निश्छल मुस्कान भरे स्कूल पहुँचे —
तो वह किसी संस्था में नहीं,
एक संसार में प्रवेश कर रहा हो।
और जब वह लौटे —
तो उसकी आँखों में
कोई जिज्ञासा झिलमिला रही हो —
जैसे निर्मल जल पर
गिरा हुआ कोई चंद्रबिंब।
तभी हम समझ पाएँगे मर्म शिक्षा का!
तभी हम कह सकेंगे —
हमने उन्हें पढ़ाया नहीं,
बल्कि उन्हें उगने दिया।
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