भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatKavita}}
<poem>
जब कोई तैयार ना हो निर्जन में साथ निभाने को,
आँखे भी रीती हों कोई स्वप्न नहीं हो पाने को,
नियति भी तत्पर हो मानो जग से तुम्हें मिटाने को,
जीवन की उस कठिन घड़ी में तुम किंचित ना घबराना।
'मीत' अँधेरा आए पथ में दीप सदृश तुम जल जाना।।
जब कुरूपता आगे बढ़कर दोष निकाले दर्पण का,
प्रेम बने व्यापार अर्थ हो शेष नहीं कुछ अर्पण का,
अपने ही हाथों से माली नाश करें निज मधुबन का
देख समय की तुम निर्ममता पथ विचलित ना हो जाना।
मीत सुलह ना करना जग से हो संभव तो मिट जाना।।
संबंधों के तरु की छाया जब झुलसा दे जीवन को,
नाविक ही जब करें निमंत्रित विकट कराल प्रभंजन को
और पपीहा अस्वीकृत कर दे स्वाति के आमंत्रण को,
संबंधों की असिधारा पर अगर कठिन हो चल पाना।
मीत तोड़कर सारे बंधन निर्मोही तुम होजाना.।।
-0-
</poem>