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|रचनाकार=विनीत पाण्डेय
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
हार तो काबिज ही होगी लश्करों पर
बेवकूफी है भरोसा कायरों पर
क्या भला मौसम बिगाड़ेगा हमारा
हम उगे हैं दूब बन कर पत्थरों पर
खामियाजा भरते हैं बाबू-सिपाही
आँच तक आती नहीं है अफसरों पर
मुल्क की तहजीब को महफूज़ रखना
जिम्मेदारी है ये अब अपने सरों पर
चाह लें तो आसमाँ भी दूर कब है
है यकीं पूरा हमें अपने परों पर
</poem>
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हार तो काबिज ही होगी लश्करों पर
बेवकूफी है भरोसा कायरों पर
क्या भला मौसम बिगाड़ेगा हमारा
हम उगे हैं दूब बन कर पत्थरों पर
खामियाजा भरते हैं बाबू-सिपाही
आँच तक आती नहीं है अफसरों पर
मुल्क की तहजीब को महफूज़ रखना
जिम्मेदारी है ये अब अपने सरों पर
चाह लें तो आसमाँ भी दूर कब है
है यकीं पूरा हमें अपने परों पर
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