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|रचनाकार=श्याम सखा 'श्याम'
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बने फिरते थे जो जमाने में शातिर
पहाड़ो तले आये वे ऊंट आखिर

छुपाना है मुश्किल इसे मत छुपा तू
हमेशा मुहब्बत हुई यार जाहिर

बना कैस रांझा बना था कभी मैं
मेरी जान सचमुच मैं तेरी ही खातिर

खुदा को भुलाकर तुझे जब से चाहा
हुआ है खिताब़ अपना तब से काफ़िर

बनी को बिगाड़े, बनाये जो बिगड़ी
कहें लोग उसी को तो हरफन में माहिर

मुझे छोड़ कर तुम कहां जा रहे हो
हमीं दो तो हैं इस सफर के मुसाफिर

छुपाने में जिसको थे मशगूल सारे
वही बात कैसे हुई यार जाहिर

तेरी खूबियाँ ‘श्याम’ सब ही तो जाने
खुशी हो के हो ग़म तू हरदम है शाकिर
</poem>