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मजाल कि हमारे भविष्य से आँख मूंद ले!"
'''।। जन-तांत्रिक ।।
ऊपर से नीचे तक
साफ़-साफ़/अब दो पक्ष थे
आईने के सामने था जन
आईने को पकड़े
आईने के पीछे था तंत्रा तंत्र कुछ भी न पकड़े हुए सब -कुछ को
जकड़े।
जनᄉजिसके जन- जिसके दसो दसों शंख थे न दसो दसों चक्र
आईना देखता रहा
आईना उसे पूजने लायक लगा/क्योंकि
उसमें
उसके सिवा
ज्योतिषी
जन को देख तो नहीं पा रहा था
लेकिन उसकी हर, हरकत के बारे मेंवह जो भी अंदाजे अंदाज़ लगा रहा था,
प्रामाणिक थे।
और अंततः
ज्योतिषी के कानों तक पहुंची पहुँची
वह बुदबुदाहट भी ,
जो जन के होठों पर/हूबहू
उसी रूप में थी जिस रूप में
अपने इष्टदेव इष्ट देव की तसवीर के सामने अगरबत्ती जलाते समय/उसके होठों पर
होती है।
क्योंकि यही वह क्षण था
जो अपने गर्भ में
जन के लिए/कुछ भी जन देने से पहले,
अवधि के अनंत विस्तार को
पोस सकता था
और/जिसके लिए जन
साल दर साल सम्भाल कर रखने के लिए
किसी भी तरह के वादे को
अपनी उम्मीदों की टेंट में खोंस सकता था।
ज्योतिषी ने इसी क्षण
अपने उस साथी को इशारा किया/ जिसने
उस निहायत मासूम चेहरे वाले जन को
आईने में महान कह कर
आत्मबोध के काबिल क़ाबिल बनाया था
और उसे प्रकट कर दिया था
खुद अंतर्द्धान अंतर्ध्यान रह कर।
ज्योतिषी का वह साथी
ज्योतिषी के करीब आया।
ज्योतिषी के पांवों पाँवों के पास
वेदी वह पहले ही बना चुका था
अब वह
अपनी नीयत के बराबर
लकड़ियों के छोटे -छोटे टुकड़े
उस वेदी पर सजाने लगा
एक के ऊपर एक-चौकोर।
और, जब इस तरह
आग की लपटों को घेरने का इंतजाम इंतज़ाम हो गयातो उसने जोर ज़ोर से एक फूंक फूँक मारी। लकड़ियों के बीचोंबीच बीचों-बीच
आग की
एक निहायत पतली
लौ ने
सर उठाया
जिसकी चमक/ज्योतिषी और उसके
साथी के चेहरों को समर्पित होती रही
और धुआं धुआँ बढ़ता रहा जन की तरफ।तरफ़।
धुआं चूंकि धुआँ चूँकि सुगंधित था ।इष्टदेव इष्ट देव की तस्वीर के सामने जलती अगरबत्ती की तरह
इसलिए जन
उसे गद्गद् गदगद भाव से बरदाश्त करता रहा
वह
अपने हाथों से आईने को थामे
या आंख आँख मले- चुनाव करना उसके लिए
मुश्किल था
और इस मुश्किल को अपारदर्शी आसानी
में बदलता हुआ
धुआं धुआँ उसकी आंखों आँखों में भरता रहा।
और जब
जन के लिए सम्भव न रह गया
तो उसने धीरे से
आईने को जमीन ज़मीन पर लिटा दियाऔर आंख आँख मलने लगा
देख कुछ भी नहीं पा रहा था वह
सिर्फ सिर्फ़ कुछ आवाजें आवाज़ें उसने सुनीं उन्हीं आवाजों आवाज़ों के सहारे/धुएँ के साथवह हो लिया/ धुएँ की जड़ की तरफ तरफ़
वह चलने लगा।
सिकुड़ रही थीं,
धुआँ फैल रहा था
उसके कानों में आवाजें आवाज़ें थींआंखों आँखों में धुआँ
पर हाथों में हवि नहीं थी
फिर भी वह कई बार 'स्वाहा' कह गया।
जो कुछ था/अब
ज्योतिषी और उसके साथी के
हाथों में था
और वे निश्चिन्त थे
कि पवित्रा धुएं पवित्र धुएँ में मिचमिचाती आंखें आँखें जब वह खोलेगा/तो एक
गर्व करने लायक
सांस्कृतिक आदमी हो जाएगा
जिसे
उन दोनों के हाथ मजबूत मज़बूत करना
लाजिमी हो जाऐगा।
'''।। परावर्तन ।।
ज्योतिषी था, उसका साथी था।
कि समय का सच यही है जो सामने है-
उनके अनुष्ठान से उठते
धुएं धुएँ की तरह !
दोनों की खुशी ख़ुशी का ठिकाना न रहा
जब उन्हें विश्वस्त सूत्रों से पता चला
कि इस पवित्रा धुएं पवित्र धुएँ से-तमाम टी.वी. टी०वी० चैनलों ने घर -घर को महका दिया है।
लोग- तमाम सारे लोग-
भूख और विपदा के मारे लोग
खूब ख़ूब खाये अघाये डकारे लोगगड़ाये हैं अपनी आंखें आँखें
उन्हीं स्क्रीनों पर
जहां जहाँ सब -कुछ सीधे आता है
लेकिन कुछ भी सच और सतत नहीं आता,
सब कुछ चटखारेदार-रंगबिरंगारंग-बिरंगाऔर/बीच -बीच में ब्रेक के साथ।
देर रात तक
जिसे देखते -देखते-सबको
आखिर सो जाना है
एक निरी उथली, स्वप्नविहीन नींद;
आईना
जमीन पर चित्त धरा था।
अब किसी की नजर नज़र
उस पर न थी।
पर
आग की जिन लपटों को
घेरने का इंतजाम इंतज़ाम हो गया था
वे लपटें
लकड़ियों में से, बीच -बीच में
थोड़ा भी ऊपर उठतीं
आईने से उनकी आंखें आँखें
लड़ जातीं,
ज्योतिषी और उसके साथी की आंखों आँखों में-
इससे पहले कि उनकी पलकें
आंखों आँखों की रक्षा में झंपेंझँपें-चुभ जाती तीर -सी नुकीली
भभक !
और जब -जब ऐसा होता
वे दोनों
अपनी आंखों आँखों पर अपने -अपने हाथ के पंजों को ढाल की तरह कर लेते।
पर तभी, उन्हें ध्यान आया
ज्योतिष को विज्ञान की तरह प्रचारित करते -करते
असल विज्ञान का तथ्य उन्हें
याद ही न रहा, जिसे
उन्होंने कभी पढ़ा था।
ज्योतिषी ने कंपकंपी कँपकँपी महसूस की
आईना अपने परावर्तन धर्म पर अड़ा था
÷स्वाहा 'स्वाहा-स्वाहा' बंद हो चुका था
और वह जन-
जिसके न दसो दसों शंख थे न दसो दसों चक्र
आईने को अपने पक्ष में देख रहा था
अपने अक्स में
जो उसके अपने असली कद क़द से जरा ज़रा भी न छोटा था, न बड़ा था।
आईने के नीचे जमीन ज़मीन थी और बीच में जरा ज़रा भी जगह न थी
कि जन-तांत्रिक उसकी आड़ ले सके।
</poem>
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