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अग्निबीज / नागार्जुन

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अग्निबीज<brPoem>अग्निबीजतुमने बोए थे<br>रमे जूझते,<br>युग के बहु आयामी<br>सपनों में, प्रिय<br>खोए थे!<br>अग्निबीज<br>तुमने बोए थे<br><br>
तब के वे साथी<br>क्या से क्या हो गए<br>कर दिया क्या से क्या तो,<br>देख–देख<br>प्रतिरूपी छवियाँ<br>पहले खीझे <br>फिर रोए थे<br>अग्निबीज<br>तुमने बोए थे<br><br>
ऋषि की दृष्टि <br>मिली थी सचमुच<br>भारतीय आत्मा थे तुम तो<br>लाभ–लोभ की हीन भावना<br>पास न फटकी<br>अपनों की यह ओछी नीयत<br>प्रतिपल ही<br>काँटों–सी खटकी<br>स्वेच्छावश तुम<br>शरशैया पर लेट गए थे<br>लेकिन उन पतले होठों पर<br>मुस्कानों की आभा भी तो<br>कभी–कभी खेला करती थी!<br>यही फूल की अभिलाषा थी<br>निश्चय¸ तुम तो<br>इस 'जन–युग' के<br>बोधिसत्व थे;<br>पारमिता में त्याग तत्व थे। <br><br/Poem>
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