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|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत

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झील पर पंछी : तीन
(प्रस्थान)
हो गया
अब देस लौटने का समय
वे हो रहे पंक्तिबद्घ
उडऩे को
अपनी-अपनी दिशाओं में

साथ में नहीं कोई सामान-असबाब
न कोई लद्दू जानवर

वे उडेंगे तो उनका साथ देगा
उनका दु:स्साहस
उनके पंख
आसमान
हवा
और दूर-दूर तक
विहंगावलोकन करती
उनकी दिव्य आँख

वे उड़ेंगे तो लाँघेंगे
एक से एक सुन्दर भूखण्ड
बीहड़ घाटियाँ
घने बियाबान
शहरों पर से गुजरेंगे वे
एक के बाद एक
पंक्तिबद्घ
उनके मैल, उनके धुएँ को नकारते
दिनभर यात्रा के बाद
यदि वे उतरेंगे
तो एकान्त जलों के तट
शिकारगाहों से अलग
प्रजननातुर
अपने वंश को बढ़ाते
असह्यï भूमध्य गर्मियों में
वे त्याग देंगे
परदेस का मोह
और लौटेंगे एक दिन
पिघलती बर्फ के
सुविस्तृत पठारों में
जब आसमान होगा
बिल्कुल साफ़
और जलाशयों में
फिर से उतर सकेंगे
सूर्य के बिम्ब
चोटियाँ नजर आयेंगी
शंक्वाकार
और ठण्डे मैदानों में प्रकृति होगी
सौम्य और उदात्त
होंगे ध्रुवीय देवता भी
प्रसन्न और शान्त।
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