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|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत|संग्रह=घर एक यात्रा है / श्रीनिवास श्रीकांत
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<Poem>
घर...
रहते उसमें अदृश्य आदमी
आदमियों में रहता घर अदृश्य
दोनों रात को अकेलेपन में
होते मुझ में एकमय
जो खटखटाती है
रह -रह कर मेरा द्वार
मैं चलने लगता हूँ नींद में
नींद में ही खुलता है दृष्टि पथ
उतरता हूँ सीढिय़ाँ अदृश्य
मैं और वह सीढिय़ाँ उतरते हैं
एक-दूसरे में परस्पर
देखता हूँ अपने कन्धों पर फैलता
गहन-नीला आसमान
वह भी चलता है साथ-साथ
अपने जादुई चित्रों के साथ
दरीचों से झाँकती हैं गली में
अदृश्य आदमियों की
टेढ़ी-तिरछी आँखें
वातायनों से
बनातीं रहस्यमय कोलाज
मैं नहीं हूँ नहीं अपने आसपास
महज पगध्वनियाँ हैं दूरस्थ
बजतीं किसी दूसरी बस्ती में
बहुगुणित होतीं
जैसे एक के बाद एक उभरतीं
स्मृतियाँ
आग, धुआँ और लपटें
कहीं दूर जंगल में
अपार पानी की सतह पर
डगमगाता
संवाद करतीं दूर से आती हवायें
उसके साथ
बतियाते अदृश्य आदमी भी
उसको नाव की तरह खेते
चन्द्रमा पूनम का
अपार सागर तल पर
एकाएक धुन्ध में पड़ जाता मद्घम
बिम्ब उसके होते जल में विलीन
और उसके साथ -साथ मेरी स्वापक चेतना भी
जो कर रही थी
अभी-अभी नींद में भ्रमण।
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