भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
}}
<Poem>
बड़ी मेहनत से पाले गए कल्पवृक्ष के शिखर पर बसेरा है सर्वभक्षी कव्वों का
फलों को कुतर–कुतर कर
टहनियों पर टांग टाँग दी है जातियों की लंबी–लंबी सूचियां टांक लम्बी–लम्बी सूचियाँ टाँक दिए हैं तने पर हिज्जे सम्प्रदायों के शाखाओं से रिसता है गोंद विधर्मता का
छाया में एसकी उसकी रचना बलात्कारों की
पत्ता-पत्ता है छलनी
स्वार्थ के तीरों से
भीतर ही भीतर से
पड़ा है खोखला तन्त्र का महातरु भरपेट कुड़-कुड़ाते हैं कव्वे महावृक्ष की जड़ें गड़ती जा रहीं गहरी जमीन ज़मीन मेंतना मजबूत मज़बूत तना रहा बराबर लहलहा रहीं शाखाएं शाखाएँ हरी–भरीं प्रभामंडल में इसके पल रही पसरी खुशहाली हवा में डोलते जर्जर वृक्ष पर कभी कांप काँप उठते हैं कव्वे देते महावृक्ष के टूट गिरने का रहस्यमय संकेत
</poem>