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तुम रहो यूँ ही / तुलसी रमण

108 bytes added, 05:58, 15 जनवरी 2009
मेरे भीतर उगे
इस ''बरास1 '' के तने को
अपनी बाहों में पूरा समेट \ डबडबाई आँखों
भीनी मुस्कान के साथ
तुम ''झुणक2 '' देती रहो
मेरे खिले फूलों को
उसी ज़मीन पर उतारने के लिए.... चाहकर भी झपटी नहीं तुम
मैं कहता चलूं
कविता...
 
''1. बुरंश का वृक्ष
2. पेड़ को खूब हिलाना''
</poem>
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