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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
}}

<poem>
मैं उनका ही होता जिनसे
:मैंने रूप भाव पाए हैं।
वे मेरे ही हिये बंधे हैं
:जो मर्यादाएँ लाए हैं।
मेरे शब्द, भाव उनके हैं
:मेरे पैर और पथ मेरा,
:मेरा अंत और अथ मेरा,
::ऐसे किंतु चाव उनके हैं।
मैं ऊँचा होता चलता हूँ
:उनके ओछेपन से गिर-गिर,
:उनके छिछलेपन से खुद-खुद,
::मैं गहरा होता चलता हूँ।
</poem>
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