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Kavita Kosh से
मेरी हुक्मरानी है अहले ज़मीं पर
यह तहरी था साफ़ उसकी जबीं पर
सफ़ेद और शफ़्फ़ाफ़ कपद़्ए कपड़े पहन कर
मेरे पास आती थी इक हूर बन कर
कभी उसकी शोख़ी में संजीदगी थी
कभी उसकी संजीदगी में भी शोख़ी
घड़ी चुप घड़ी करने लगती थी बातें
सिरहाने मेरे काट देती थी रातें
सिरहाने मेरे एक दिन सर झुकाए
वोह बैठी थी तकिए पे कोहनी तिकाएटिकाए
ख़यालाते पैहम में खोई हुई -सी
न जागी हुई-सी , न सोई हुई-सी
झपकती हुई बार-बार उसकी पलकें
जबीं पर शिकन बेक़रार उसकी पलकें
मुझे लेटे-लेटे शरारत की सूझी
जो सूझी भी तो किस शरारत की सूझी
मैं देखूँगा उसके बिफरने का आलम
जस्वानी का ग़ुस्सा बिखरने का आलम
इधर दिल में इक शोरे-महशर बपा था
मगर उस तरफ़ रंग ही दूसरा था