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Kavita Kosh से
पंगु बना देना चाहती है,
भाषा में गूँथी हुई विजय
भाषा के पोत में चमकते हुए सपने
भाषा में छपी हुई गाथाएँ
चखते हुए अपनी आँखों से इन्हें
क्या हम एक दिन अंधे हो जाएँगे
तुम सोचते हो
सब सोचना चाहते हैं
मैं भी सोचता हूँ
किस अग्नि-स्नान के बाद
उगेंगे-छपेंगे वे शब्द
जिनके पेट में छिपा होगा वह सत्य
जिसे देखते ही पहचान जाना होगा आसान
किंतु भाषा के इस भद्दे नाटक में घमासान
जिसे विदूषक ने आज दफ़ना दिया है कहीं
मंच के नीचे या नायकों के तख्तेताऊस के पास
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