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18:25, 18 जनवरी 2009
{{KKRachna
|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
|संग्रह= लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले
}}
<poem>
वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच कब से कपड़े पछीट रही है,
कब से कपड़े पछीट रही है शताब्दिशें सेधूप के तार पर सुखा रही है,वह औरत आकाश और धूप और हवा सेवंचित घुप्प गुफा मेंकितना आटा गूंध रही है?गूंध रही है मानों सेर आटाअसंख्य रोटियाँसूरज की पीठ पर पका रही है,
पछीट एक औरतदिशाओं के सूप में खेतों कोफटक रही है शताब्दियों एक औरतवक़्त की नदी मेंदोपहर के पत्थर से शताब्दियाँ हो गईंएड़ी घिस रही है,
धूप एक औरत अनंत पृथ्वी कोअपने स्तनों में समेटेदूध के तार झरने बहा रही है,एक औरत अपने सिर पर सुखा घास का गट्ठर रखेकब से धरती कोनापती ही जा रही है ,
वह एक औरत अँधेरे मेंखर्राटे भरते हुए आदमी के पासनिर्वसर जागतीशताब्दियों से सोयी है,
आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा एक औरत का धड़भीड़ में भटक रहा हैउसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैंउसके पाँवजाने कब सेसबसेअपना पता पूछ रहे हैं.
कितना आटा गूँध रही है? गूँध रही है मनों सेर आटा असंख्य रोटियाँ सूरज की पीठ पर पका रही है एक औरत दिशाओं के सूप में खेतों को फटक रही है एक औरत वक्त की नदी में दोपहर के पत्थर से शताब्दियाँ हो गई, एड़ी घिस रही है एक औरत अनन्त पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे दूध के झरने बहा रही है एक औरत अपने सिर पर घास का गट्ठर रखे कब से धरती को नापती ही जा रही है एक औरत अंधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।</poem>