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Kavita Kosh से
<br>मासपारायण, पहला विश्राम
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<br>चौ०-नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी।।रासी॥<br>सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी।।भोगी॥<br>नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू।।आपू॥<br>नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू।।प्रहलादू॥<br>ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ।।ठाऊँ॥<br>सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू।।रामू॥<br>अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।।प्रभाऊ॥<br>कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।गाई॥
<br>दो०-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
<br>जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।।२६।।तुलसीदासु॥२६॥
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<br>चौ०-चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका।।बिसोका॥<br>बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू।।सनेहू॥<br>ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें।।पूजें॥<br>कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना।।मीना॥<br>नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला।।जाला॥<br>राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता।।माता॥<br>नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।।एकू॥<br>कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू।।हनुमानू॥
<br>दो०-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
<br>जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल।।२७।।सुरसाल॥२७॥
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<br>चौ०-भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।दसहूँ॥<br>सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा।।माथा॥<br>मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती।।अघाती॥<br>राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो।।पोसो॥<br>लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती।।प्रीती॥<br>गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर।।उजागर॥<br>सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी।।नारी॥<br>साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला।।कृपाला॥<br>सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी।।पहिचानी॥<br>यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ।।कोसलराऊ॥<br>रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें।।मोतें॥
<br>दो०-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
<br>उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु।।२८भालु॥२८(क)।।॥
<br>हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
<br>साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास।।२८तुलसीदास॥२८(ख)।।॥
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<br>चौ०-अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी।।सकोरी॥<br>समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें।।सपनें॥<br>सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही।।सराही॥<br>कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की।।की॥<br>रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।।की॥<br>जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली।।कुचाली॥<br>सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी।।हेरी॥<br>ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने।।बखाने॥<br>दो0-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।।समान॥<br>तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान।।२९सीलनिधान॥२९(क)।।॥
<br>राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
<br>जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक।।२९तुलसीक॥२९(ख)।।॥
<br>एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
<br>बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ।।२९नसाइ॥२९(ग)।।॥
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<br>चौ०-जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई।।सुनाई॥<br>कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी।।मानी॥<br>संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा।।सुनावा॥<br>सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा।।चीन्हा॥<br>तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।।गावा॥<br>ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला।।हरिलीला॥<br>जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना।।समाना॥<br>औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना।।नाना॥
<br>दो०-मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
<br>समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत।।३०अचेत॥३०(क)।।॥
<br>श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
<br>किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़।।३०बिमूढ़॥३०(ख)॥
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<br>चौ०-तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा।।अनुसारा॥<br>भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई।।होई॥<br>जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें।।प्रेरें॥<br>निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी।।तरनी॥<br>बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि।।बिभंजनि॥<br>रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी।।अरनी॥<br>रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई।।सुहाई॥<br>सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि।।भुअंगिनि॥<br>असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि।।गिरिनंदिनि॥<br>संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी।।सी॥<br>जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी।।कासी॥<br>रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी।।सी॥<br>सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी।।रासी॥<br>सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी।।सी॥
<br>दो०- राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
<br>तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु।।३१।।बिहारु॥३१॥
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<br>चौ०-राम चरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू।।सिंगारू॥<br>जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के।।के॥<br>सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के।।के॥<br>जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के।।के॥<br>समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के।।के॥<br>सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के।।के॥<br>काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के।।के॥<br>अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के।।के॥<br>मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के।।के॥<br>हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से।।से॥<br>अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से।।से॥<br>सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से।।से॥<br>सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से।।से॥<br>सेवक मन मानस मराल से। पावक गंग तंरग माल से।।से॥
<br>दो०-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
<br>दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड।।३२प्रचंड॥३२(क)।।॥
<br>रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
<br>सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु।।३२लाहु॥३२(ख)।।॥
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<br>चौ०-कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी।।बखानी॥<br>सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथाप्रबंध बिचित्र बनाई।।बनाई॥<br>जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई।।सोई॥<br>कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी।।जानी॥<br>रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं।।माहीं॥<br>नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।अपारा॥<br>कलप भेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए।।गाए॥<br>करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सारद रति मानी।।मानी॥
<br>दो०-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
<br>सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार।।३३।।बिचार॥३३॥
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<br>चौ०-एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी।।धूरी॥<br>पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी।।खोरी॥<br>सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा।।गाथा॥<br>संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा।।सीसा॥<br>नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा।।प्रकासा॥<br>जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं।।आवहिं॥<br>असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा।।सेवा॥<br>जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना।।गाना॥
<br>दो०-मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
<br>जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर।।३४।।सरीर॥३४॥
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<br>चौ०-दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना।।पुराना॥<br>नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारद बिमलमति।।बिमलमति॥<br>राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि।।पावनि॥<br>चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा।।संसारा॥<br>सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी।।खानी॥<br>बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा।।दंभा॥<br>रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा।।बिश्रामा॥<br>मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई।।परई॥<br>रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन।।पावन॥<br>त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन।।नसावन॥<br>रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।।भाषा॥<br>तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर।।हर॥<br>कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई।।लाई॥
<br>दो०-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
<br>अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु।।३५।।बृषकेतु॥३५॥
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<br>चौ०-संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी।।तुलसी॥<br>करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी।।सुधारी॥<br>सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू।।साधू॥<br>बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी।।मंगलकारी॥<br>लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।हानी॥<br>प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई।।सुसीतलताई॥<br>सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई।।सोई॥<br>मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन।।सुहावन॥<br>भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना।।चिराना॥
<br>दो०-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
<br>तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि।।३६।।चारि॥३६॥
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<br>चौ०-सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना।।माना॥<br>रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा।।अगाधा॥<br>राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम।।मनोरम॥<br>पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई।।सुहाई॥<br>छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा।।सोहा॥<br>अरथ अनूप सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा।।सुबासा॥<br>सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला।।मराला॥<br>धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती।।बहुभाँती॥<br>अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी।।बिचारी॥<br>नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा।।तड़ागा॥<br>सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना।।समाना॥<br>संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई।।गाई॥<br>भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना।।बिताना॥<br>सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना।।बखाना॥<br>औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा।।बिहंगा॥
<br>दो०-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
<br>माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु।।३७।।चारु॥३७॥
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<br>चौ०-जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे।।रखवारे॥<br>सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी।।अधिकारी॥<br>अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा।।अभागा॥<br>संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना।।नाना॥<br>तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे।।बिचारे॥<br>आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई।।जाई॥<br>कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला।।ब्याला॥<br>गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला।।बिसाला॥<br>बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना।।नाना॥
<br>दो०-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
<br>तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ।।३८।।रघुनाथ॥३८॥
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<br>चौ०-जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई।।होई॥<br>जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा।।अभागा॥<br>करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।।अभिमाना॥<br>जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा।।बुझावा॥<br>सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही।।जेही॥<br>सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई।।जरई॥<br>ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ।।भाऊ॥<br>जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई।।लाई॥<br>अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही।।अवगाही॥<br>भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू।।प्रबाहू॥<br>चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो।।सो॥<br>सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला।।कूला॥<br>नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि।।निकंदिनि॥
<br>दो०-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
<br>संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल।।३९।।मूल॥३९॥
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<br>चौ०-रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई।।सुहाई॥<br>सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन।।सुहावन॥<br>जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा।।बिचारा॥<br>त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी।।समुहानी॥<br>मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही।।करिही॥<br>बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा।।बागा॥<br>उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती।।बहुभाँती॥<br>रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई।।मनोहरताई॥
<br>दो०-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
<br>नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग।।४०।।बारिबिहंग॥४०॥
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<br>चौ०-सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई।।छाई॥<br>नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका।।सबिबेका॥<br>सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई।।सोई॥<br>घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी।।बानी॥<br>सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू।।काहू॥<br>कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं।।नहाहीं॥<br>राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।।समाजा॥<br>काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी।।घनेरी॥
<br>दो0-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।
<br>कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग।।41।।काग॥41॥
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<br>कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी।।भूरी॥<br>हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू।।उछाहू॥<br>बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू।।रितुराजू॥<br>ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू।।पवनू॥<br>बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी।।सुमंगलकारी॥<br>राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई।।सुहाई॥<br>सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा।।पाथा॥<br>भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई।।जाई॥
<br>दो0- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
<br>भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास।।42।।सुबास॥42॥
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<br>आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी।।थोरी॥<br>अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी।।हारी॥<br>राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानौ।।गलानौ॥<br>भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा।।दोषा॥<br>काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन।।बढ़ावन॥<br>सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें।।तें॥<br>जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए।।बिगोए॥<br>तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी।।दुखारी॥
<br>दो0-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ।
<br>सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ।।43सुहाइ॥43(क)।।॥
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<br>अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
<br>कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद।।43संबाद॥43(ख)।।॥<br>भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा।।अनुरागा॥<br>तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना।।सुजाना॥<br>माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।कोई॥<br>देव दनुज किंनर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं।।त्रिबेनीं॥<br>पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता।।गाता॥<br>भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन।।भावन॥<br>तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा।।तीरथराजा॥<br>मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा।।गाहा॥
<br>दो0-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
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<br>कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग।।44।।बिराग॥44॥
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<br>एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं।।जाहीं॥<br>प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा।।मुनिबृंदा॥<br>एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए।।सिधाए॥<br>जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी।।टेकी॥<br>सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे।।बैठारे॥<br>करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी।।बानी॥<br>नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरें।।तोरें॥<br>कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा।।अकाजा॥
<br>दो0-संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
<br>होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव।।45।।दुराव॥45॥
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<br>अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू।।छोहू॥<br>रास नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा।।गावा॥<br>संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी।।रासी॥<br>आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं।।लहहीं॥<br>सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया।।दाया॥<br>रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही।।मोही॥<br>एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा।।संसारा॥<br>नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा।।मारा॥
<br>दो0-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
<br>सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि।।46।।बिचारि॥46॥
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<br>जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी।।बिस्तारी॥<br>जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई।।प्रभुताई॥<br>राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी।।जानी॥<br>चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा।।मूढ़ा॥<br>तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई।।सुहाई॥<br>महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला।।कराला॥<br>रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना।।पाना॥<br>ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी।।बखानी॥
<br>दो0-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
<br>भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद।।47।।बिषाद॥47॥
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<br>एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।पाहीं॥<br>संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी।।जानी॥<br>रामकथा मुनीबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी।।मानी॥<br>रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई।।पाई॥<br>कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा।।गिरिनाथा॥<br>मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।दच्छकुमारी॥<br>तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा।।अवतारा॥<br>पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी।।अबिनासी॥
<br>दो0-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
<br>गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ।।48कोइ॥48(क)।।॥
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<br>सो0-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।।सोइ॥<br>तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची।।48लालची॥48(ख)।।॥<br>रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा।।साचा॥<br>जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा।।बनावा॥<br>एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा।।दससीसा॥<br>लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा।।कुरंगा॥<br>करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही।।तेही॥<br>मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए।।छाए॥<br>बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई।।भाई॥<br>कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें।।ताकें॥
<br>दो0-अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
<br>जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन।।49।।आन॥49॥
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<br>संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा।।बिसेषा॥<br>भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी।।चिन्हारी॥<br>जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन।।नसावन॥<br>चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता।।कृपानिकेता॥<br>सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी।।बिसेषी॥<br>संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा।।सीसा॥<br>तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधमा।।परधमा॥<br>भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी।।रोकी॥
<br>दो0-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
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<br>सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद।। 50।।वेद॥50॥
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<br>बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी।।
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