भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
दोहा सं० ६९ तक
<br>दो०-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
<br>सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥५०॥
<br>–*–*–
<br>चौ०-बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
<br>खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥
<br>सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥
<br>पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
<br>जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कुछ कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥<br>पति परित्याग हृदय हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
<br>बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥
<br>दो०-पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
<br>तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥६१॥
<br>–*–*–<br>चौ०-कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥<br>दच्छ सकल निज सुता बोलाई। बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराई॥बिसराईं॥
<br>ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
<br>जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥
<br>दो०-कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
<br>दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥६२॥
<br>–*–*–<br>चौ०-पिता भवन जब गई भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
<br>सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥
<br>दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥
<br>दो०-सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
<br>सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥६३॥
<br>–*–*–<br>चौ०-सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
<br>सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥
<br>संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
<br>दो०-सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
<br>जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥६४॥
<br>–*–*–<br>चौ०-समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
<br>जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥
<br>भे जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
<br>यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप संक्षेप बखानी॥
<br>सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
<br>तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥
<br>जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥
<br>दो०-सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
<br>प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥६५॥
<br>–*–*–<br>चौ०-सरिता सब पुनित पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥<br>सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं करहि अनुरागा॥
<br>सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
<br>नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥
<br>दो०-त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि॥
<br>कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥६६॥
<br>–*–*–<br>चौ०-कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
<br>सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥
<br>सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
<br>दो०-जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष॥
<br>अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥६७॥
<br>–*–*–<br>चौ०-सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
<br>नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥
<br>सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
<br>दो०-कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
<br>देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥६८॥
<br>–*–*–<br>चौ०-तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
<br>जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीं॥
<br>जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने॥
<br>भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥
<br>सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
<br>समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाई॥नाईं॥
<br>दो०-जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान।
<br>परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥६९॥
<br>–*–*–<br>चौ०-सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
<br>सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥
<br>संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
Anonymous user