भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
साँवली पलकें नशीली नींद में जैसे झुकें
चाँदनी से भरी भारी बदलियाँ हैं,
ख़ाब में गीत पेंग लेते हैहैं
प्रेम की गुइयाँ झुलाती हैं उन्हें :
:–उस – उस तरह का गीत, वैसी नींद, वैसी शाम-सा है
:वह सलोना जिस्म।
उसकी अधखुली अँगड़ाइयाँ हैं
कमल के लिपटे हुए दल
वह सुबह की चोट है हर पंखुड़ी पर।
नर्म कलियों के
पर झटकता झटकते हैं हवा की ठंड को।
तितलियाँ गोया चमन की फ़िज़ा में नश्तर लगाती हैं।
:–एक – एक पल है यह समाँ
:जागे हुए उस जिस्म का!
जहाँ शामें डूब कर फिर सुबह बनती हैं
एक-एक–एक –
और दरिया राग बनते हैं – कमल
फ़ानूस – रातें मोतियों की डाल –