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दार्ज़िन / अनूप सेठी

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भाँत-भाँत के कपड़े हैं पुरानी अल्मारी में
सिले अधसिले अनसिले
भाँत-भाँत के डिजाइन हैं दर्ज़िन के दिमाग में

दर्ज़िन की अँगुलियां छू कर जान जाती हैं कपड़े की फितरत
जिस पिंडे को ढकेगा उसकी औकात भी जान जाती है दर्ज़िन

कैंची लगते ही कपड़ा दर्ज़िन के हाथ मिट्टी का लौंदा बन जाता है
सिलकर निकलता है जैसे कुम्हार के आंवे से नई नई सुराही

देह पानी बन भर जाएगी कमजोरियाँ घुल जाएँगी
हिलोरें मारती निकलेगी जनानी जातरा पर
दुख पश्चाताप का जल चढ़ाएगी माता के दरबार

दर्ज़िन जगराते कर कर गांठेगी लोगों के सुख सगुन भरे सपने
अल्मारी में कतरनों के साथ
चिपके रह जाएंगे दुख संताप

किस मां ने अपनी किस धी को
अपनी कुर्ती छोटी कर पहनाई
बहन की बहन को समीज बाप की बेटे को कमीज
किसने किसको दिया शगुन में कपड़ा किसके काम आया
किसकी कहां से उधड़ी कहां से फटी कुर्ती
सिल देगी चुपचाप

पूछेगी नहीं जान जान जाएगी
कपड़े पर मार मारकुटाई की है या
मेहनत मजदूरी की

किसने कौन जना तब ढीली की थी कुर्ती
किस की मुन्नी को किसके बचे हुए कपड़े की फ्राक सिल कर पहनाई

लिखा नहीं उसने कभी पेशेवर दर्जी सा कागज पर कोई हिसाब

गली के छोर पर बरामदे में बैठी दर्ज़िन को
बोलो मोह छोड़ो, फैंक दो कतरनों के अंबार
किस्सों में उलझा लेगी
दस मुहल्लों की चार पुश्तों का
छींटदार पैबँदों वाला ऐसा चुन्नटदार बखान करेगी
ठगे रह जाएंगे आप।
(1995)
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