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<br>दो०-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
<br>सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥१३२॥
<br>–*–*–<br>चौ०-कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
<br>एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
<br>माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
<br>दो०-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
<br>बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥१३३॥
<br>–*–*–<br>चौ०-जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
<br>तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
<br>करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
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