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Kavita Kosh से
मैं जनमा जब से इस साले ने कष्ट दिया
उल्लू का पट्ठा कंधे पर है खड़ा हुआ।
कि इतने में
गंभीर मुझे आदेश –
कि बिल्कुल जमे रहो।
मैं अपने कंधे क्रमशः सीधे करता हूँ
तन गई पीठ
और स्कंध नभोगामी होते
इतने ऊँचे हो जाते हैं,
मैं एकाकार हो गया-सा देवाकृति से।
नभ मेरे हाथों पर आता
मैं उल्का-फूल फेंकता मधुर चंद्रमुख पर
मेरी छाया गिरती है दूर नेब्यूला में।
बस, तभी तलब लगती बीड़ी पीने की।
मैं पूर्वाकृति में आ जाता,
बस, चाय एक कप मुझे गरम कोई दे दे
ऐसी-तैसी उस गौरव की
जो छीन चले मेरी सुविधा
मित्रों से गप करने का मज़ा और ही है।
ये गरम चिलचिलाती सड़कें
सौ बरस जिएँ
क्रमशः...
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