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<poem>
दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे

मानो जीवन सरिता
:जलते कूलोंवाली,
इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों

बहती है तरुणों की आत्मा प्रतिभाशाली

अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि,

लेकर ज्यों बहते रहते हैं,

ये भारतीय नूतन झरने

अंगारों की धाराओं से

विक्षोभों के उद्वेगों में

संघर्षों के उत्साहों में
:जाने क्या-क्या सहते रहते ।

लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला;

जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी
:धरती की प्रस्तर-माला
जल-भरे पारदर्शी उर में !!

सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर

जन-जन के पुत्रों के हिय में
:मचले हिन्दुस्तानी झरने
::मानव युग के ।

इन झरनों की बलखाती धारा के जल में —

लहरों में लहराती धरती
:की बाहों ने
बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया,

मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान

इन झरनों में

अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !!

ऐसा संघर्षी वर्तमान —
:तुम भी तो हो,

मानव-भविष्य का आसमान —
:तुममें भी है,
मानव-दिगन्त के कूलों पर

जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें
:वे अपनी लाल बुनावट में
:जिन कुसुमों की आकृति बुनने
:के लिए विकल हो उठती हैं —
उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो,

वह तुम ही हो.

इस रिश्ते से, इस नाते से

यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल,

बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल

ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल,

पत्थर, जंगल

पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से

उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना,

मानव-दिगन्त के कूलों पर

जिन किरनों का ताना-बाना
:उस रश्मि-रेशमी
:क्षितिज-क्षोभ पर अंकित
नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल —

आदर्श बिम्ब मानव युग के ।
</poem>
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