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|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत
|संग्रह=घर एक यात्रा है / श्रीनिवास श्रीकांत
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<Poem>
भुतही हवेलियों के इस उन्मत्त नगर में
शराबघर के फीके अन्धेरे में
स्थिर है वह बूढ़ा
अपनी यादों में डूबा
जहां हर पहचान छोड़ रही
उसका साथ

उसने देखे हैं
देवदार वीथियों से गुजरते
साठ बसन्त
घाटियों के उजले शिशिर
घुघतियों के मधुर गीत

लेकिन वह सब
अब थपथपाता है स्वप्न सा
दुख से बोझिल
शराबघर के अकेलेपन में
जहां पी रहा वह
इस शाम का आखरी जाम

कबूतरों से उड़ गये वे दिन
वे अट्टहास
वे महफिलें
मूछों पर ताव देते कर्नल
उनकी जुआरी बीवियाँ
और शेम्पेन के खनकते हुए गिलास

अब तो जेसे दिन
बन गए हैं तलघर
और शाम ही से सताने लगता है
शराब का सर्पदंश

उधर घूरने लगता है
मार्शल सा
दो ही पैग के बाद
बार का बड़ा बैरा
तरेरता आँखें
थामता हाथ में
पिछला हिसाब

घर लौटते उसे बार-बार
याद आता है
अपनी मरी हुई पत्नी का
पुराना संवाद
बच्चा गाड़ी में हाथ-पैर हिलाता
अपना बड़ा बेटा
जो अब इतना बड़ा हो गया है
कि बाप उसे लगने लगा है
विक्टोरिया का
एक पुराना घिसा सिक्का
हालांकि पीता है वह
अपनी ही पैंशन की शराब
लेता है अपनी ही साँस

आज नहीं जाएगा वह घर
सुनने को कामकाजी बहू के
ठेठ पंजाबी ताने
आज ढूंढेगा वह कोई आश्रयस्थल
उसने सुना है
बाहर रहते हैं बूढे
अपने परिवारों से अलग
वर्जित अहातों में।
</poem>
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