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वसन्त / धूमिल

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|रचनाकार=धूमिल
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<poem>
इधर मैं कई दिनों से प्रतीक्षा
कर रहा हूँ : कुर्सी में
टिमटिमाते हुए आदमी की आँखों में
ऊब है और पड़ौसी के लिए
लम्बी यातना के बाद
किसी तीखे शब्द का आशय
अप्रत्याशित ध्वनियों के समानान्तर
एक खोखला मैदान है
और मासिकधर्म में डूबे हुए लत्ते-सा
खड़खड़ाता हुआ दिन
जाड़े की रात में
जले हुए कुत्ते का घाव
सूखने लगा है
मेरे आस-पास
एक अजीब-सा स्वाद-भरा रूखापन है
उधार देने वाले बनिये के
नमस्कार की तरह
जिसे मैं मात्र इसलिए सहता हूँ
कि इसी के चलते मौज से
रहता हूँ
मेरे लिए अब कितना आसान हो गया है
नामों और आकारों के बीच से
चीज़ों को टटोलकर निकालना
अपने लिए तैयार करना –
और फिर उस तनाव से होकर –
गुज़र जाना
जिसमें ज़िम्मेदारियाँ
आदमी को खोखला करती हैं
मेरे लिए वसन्त
बिलों के भुगतान का मौसम है
और यह वक़्त है कि मैं वसूली भी करूँ –
टूटती हुई पत्तियों की उम्र
जाड़े की रात जले कुत्ते का दुस्साहस
वारण्ट के साथ आये अमीन की उतावली
और पड़ौसियों का तिरस्कार
या फिर
उन तमाम लोगों का प्यार
जिनके बीच
मैं अपनी उम्मीद के लिए
अपराधी हूँ
यह वक़्त है कि मैं
तमाम झुकी हुई गरदनों को
उस पेड़ की और घुमा दूँ
जहाँ वसन्त दिमाग से निकले हुए पाषाणकालीन पत्थर की तरह
डाल से लटका हुआ है
यह वक़्त है कि हम
कहीं न कहीं सहमत हों
वसन्त
मेरे उत्साहित हाथों में एक
ज़रूरत है
जिसके सन्दर्भ में समझदार लोग
चीज़ों को
घटी हुई दरों में कूतते हैं
और कहते है :
सौन्दर्य में स्वाद का मेल
जब नहीं मिलता
कुत्ते महुवे के फूल पर
मूतते हैं
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