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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा |संग्रह=चिंदी-चिंदी सुख / रेखा }} <poem> '''बरसात''...
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{{KKRachna
|रचनाकार=रेखा
|संग्रह=चिंदी-चिंदी सुख / रेखा
}}
<poem>
'''बरसात'''
'''(एक)'''
धुंध सागर-सी लहराती
एक फनिल सड़क
लहर-सी उमड़ आती
सफेद पाल वाली
नाव-सी
धुआँ-धुआँ बहने लगती
एक पीठ
धीरे बहो धीरे बहो साथी रे
मैं नाव हुई जाती हूं"
'''(दो)'''
धुँध कातती टहनियाँ
बौछारें बुनते पेड़
जल परी-री नहाती धरती
अंबर की उधड़ी आँख देख
शरमाती
हरे तौलिये में लिपट जाती
'''(तीन)'''
उस टीले पर रहने वाला
कोई गंधर्व
छोड़ता है महीनों लंबी साँस
धुआँ-धुआँ हो जाते
जंगल
पहाड़
रेशमी रूई ओढ़
साँस रोके
सो जाता है सहमा बच्चा-
पहाड़ी शहर
छप-छप-छप
घूम आते हैं पाँव
शहर की नींद में
गंधर्व की कैद से
निकल आती है
धूप की नटखट परी
गुदगुदा देती है सोये शहर को
शहर चादर से चेहरा निकाल
खिलखिलाने लगता है।
'''(चार)'''
रिमझिम फुहारों में भीगना ही
नहीं होती बरसात
बादलों में बगुलों सा उड़ना ही
हाथों में हाथ दिये डबडबाये गीत गाना
नहीं होती बरसात
जंगल में बुखार-सुलगी
लकड़ियाँ बीनती लड़की
नहीं जानती
कौन था कालिदास
जानती है इतना
इस बरसते दिन
बाबा को नहीं मिलेगा काम
घाटी में समाया जंगल
नहीं भरता उसके पाँवों में
बिजलियों की कौंध
जानती है वह
कुलांचे भरती हिरणी की नियति
खुरदरे पत्थरों की ओट
सिर छुपाए उसका सोच
नाप रहा है
अपनी झुग्गी की छत
जो बरसात आने पर
कुछ और सिमट जाती है।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=रेखा
|संग्रह=चिंदी-चिंदी सुख / रेखा
}}
<poem>
'''बरसात'''
'''(एक)'''
धुंध सागर-सी लहराती
एक फनिल सड़क
लहर-सी उमड़ आती
सफेद पाल वाली
नाव-सी
धुआँ-धुआँ बहने लगती
एक पीठ
धीरे बहो धीरे बहो साथी रे
मैं नाव हुई जाती हूं"
'''(दो)'''
धुँध कातती टहनियाँ
बौछारें बुनते पेड़
जल परी-री नहाती धरती
अंबर की उधड़ी आँख देख
शरमाती
हरे तौलिये में लिपट जाती
'''(तीन)'''
उस टीले पर रहने वाला
कोई गंधर्व
छोड़ता है महीनों लंबी साँस
धुआँ-धुआँ हो जाते
जंगल
पहाड़
रेशमी रूई ओढ़
साँस रोके
सो जाता है सहमा बच्चा-
पहाड़ी शहर
छप-छप-छप
घूम आते हैं पाँव
शहर की नींद में
गंधर्व की कैद से
निकल आती है
धूप की नटखट परी
गुदगुदा देती है सोये शहर को
शहर चादर से चेहरा निकाल
खिलखिलाने लगता है।
'''(चार)'''
रिमझिम फुहारों में भीगना ही
नहीं होती बरसात
बादलों में बगुलों सा उड़ना ही
हाथों में हाथ दिये डबडबाये गीत गाना
नहीं होती बरसात
जंगल में बुखार-सुलगी
लकड़ियाँ बीनती लड़की
नहीं जानती
कौन था कालिदास
जानती है इतना
इस बरसते दिन
बाबा को नहीं मिलेगा काम
घाटी में समाया जंगल
नहीं भरता उसके पाँवों में
बिजलियों की कौंध
जानती है वह
कुलांचे भरती हिरणी की नियति
खुरदरे पत्थरों की ओट
सिर छुपाए उसका सोच
नाप रहा है
अपनी झुग्गी की छत
जो बरसात आने पर
कुछ और सिमट जाती है।
</poem>