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ओ आकाश / दीनू कश्यप

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<Poem>
ये जो पहना है मैने
लोहे का टोप
कंधे पर लटकी है जो बंदूक
देखो--------
यह हमारे भारी भरकम बूट
ये मेरे नहीं हैं।
ओ आकाश
ये नहीं है मेरे
इन्हें बनाया होगा
किन्हीं बिके या
मज़बूर हाथों ने
इन्हें बनवाया होगा
किसी महत्वकांक्षी ने
ओ आकाश
ये मेरे नहीं----------
बेमौसम की बारिश से
परेशान था मेरा खपरैल
सावन के मेघ
छिड़क रहे थे जेठ की धूप
साफ कहूं
तो मैं निकला था।
घर से रोटी की तालाश में।
लेकिन उन्हें पहले से तालाश थी
मुझ जैसी कद काठी की

जबकि उनका पान चबाता गबरू
कम नहीं था मुझसे किसी बात से।)

ओ आकाश
उन्होंने मुझे समझाया
मैने भी पहली बार समझा
तुम्हारे नीचे पृथ्वी एक नहीं है।
पृथ्वी के हैं बड़े बहुत बड़े टुकडे।
हर टुकड़े की है अपनी-अपनी हद
मुझे ठेलनी है अपनी सरहद
किन्ही बेगाने टुकड़े पर
ओ आकाश
ज़िन्दा रहने का यह बीज गणित
मेरी समझ से बाहिर है
मेरी रोटी खेतों नहीं उगती।
वह गुथी हुई उग रही है
संगीनो की टहनियों पर।
ओ आकाश
युद्ध के इस ऊसर मैदान में
तुम वैसे ही नज़र आते हो
जैसे घर के छोटे से आँगन से
फ़र्क़ तो है सिर्फ़ इतना
इस मरु प्रद्श में
ठण्डे पानी की बावडियां नहीं है।

</poem>
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