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वो तो चुंबन के लिए बेहतर निशाना था।
जब वो जिंदा ज़िंदा था, मिलों की ऊँची चिमनियों ने उसे कभी नहीं बुलाया।
ना ही रेस्तराँ के शीशों के दरवाज़े घूमे उसे अंदर ले लेने के लिए।
उसका नाम कभी अखबारों में नहीं आया।
जबकि उसकी ज़िंदगी, शेयर बाज़ार की अगोचर अफ़वाह की तरह, बाहर भटकती रही।
अरे , उसने अपनी टोपी खेल-खेल में ही फेंक दी
एक दिन जब हवा ने पेड़ों से पंखुड़ियाँ फेंकीं।
फूलहीन दीवार से बंदूकें फूट पड़ीं,
उसकी ज़िंदगी पर गौर करो जिसकी कोई कीमत नहीं थी
रोजगार रोज़गार में, होटलों के रजिस्टर में, खबरों के दस्तावेज़ों में
गौर करो। दस हज़ार में एक गोली एक आदमी को मारती है।
पूछो। क्या इतना खर्चा जायज़ था
इतनी बचकानी और अनाड़ी ज़िंदगी पर
जो जैतून के पेड़ों के नीचे पड़ी है, अरे दुनिया, अरे मौत?
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