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ताश का खेल-1 / ललन चतुर्वेदी

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<Poem>
दहले को
दहला देता है ग़ुलाम
ग़ुलाम की सिट्टी-पिट्टी
ग़ुम कर देती है बेगम
नज़रें झुका लेती है बेगम
बादशाह के सामने
हद तो तब हो जाती है
जब सब पर भारी हो जाता है एक्का
लेकिन वह भी हो जाता है बेरंग
रंग की दुग्गी के सामने
सदियों से हम
खेल रहे हैं यही खेल।
</poem>