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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=बशीर बद्र]][[Category:कविताएँ]]}}[[Category:गज़लग़ज़ल]][[Category:बशीर बद्र]]<poem>सिसकते आब में किस की सदा हैकोई दरिया की तह में रो रहा है
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~सवेरे मेरी इन आँखों ने देखाख़ुदा चरो तरफ़ बिखरा हुआ है
सिसकते आब समेटो और सीने में किस की सदा है <br>छुपा लोकोई दरिया की तह में रो रहा ये सन्नाटा बहुत फैला हुआ है <br><br>
सवेरे मेरी इन आँखों ने देखा <br>पके गेंहू की ख़ुश्बू चीखती हैख़ुदा चरो तरफ़ बिखरा हुआ बदन अपना सुनेहरा हो चला है <br><br>
समेटो और सीने में छुपा लो <br>हक़ीक़त सुर्ख़ मछली जानती हैये सन्नाटा बहुत फैला हुआ समन्दर कैसा बूढ़ा देवता है <br><br>
पके गेंहू की ख़ुश्बू चीखती है <br>हमारी शाख़ का नौ-ख़ेज़ पत्ताबदन अपना सुनेहरा हो चला हवा के होंठ अक्सर चूमता है <br><br>
हक़ीक़त सुर्ख़ मछली जानती है <br>समन्दर कैसा बूढ़ा देवता है <br><br> हमारी शाख़ का नौ-ख़ेज़ पत्ता <br>हवा के होंठ अक्सर चूमता है <br><br> मुझे उन नीली आँखों ने बताया <br>तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है <br><br/poem>