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कनुप्रिया - विप्रलब्धा - धर्मवीर भारती
कवि: [[धर्मवीर भारती]]
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उस तन्मयता में

तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपा कर

लजाते हुए

मैं ने जो-जो कहा था

पता नहीं उस में कुछ अर्थ था भी या नहीं :



आम-मंजरियों से भरी हुई मांग के दर्प में

मैं ने समस्त जगत् को

अपनी बेसुधी के

एक क्षण में लीन करने का

जो दावा किया था - पता नहीं

वह सच था भी या नहीं:

जो कुछ अब भी इस मन में कसकता है

इस तन में काँप-काँप जाता है

वह स्वप्न था या यथार्थ

- अब मुझे याद नहीं



पर इतना जरूर जानती हूँ

कि इस आम की डाली के नीचे

जहाँ खड़े हो कर तुम ने मुझे बलाया था

अब भी मुझे आ कर बड़ी शान्ति मिलती है



***

न,

मैं कुछ सोचती नहीं

कुछ याद भी नहीं करती

सिर्फ मेरी अनमनी, भटकती उँगलियाँ

मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा

वह नाम लिख जाती हैं

जो मैं ने प्यार के गहनतम क्षणों में

खुद रखा था

और जिसे हम दोनों के अलावा

कोई जानता ही नहीं



और ज्यों ही सचेत हो कर

अपनी उँगलियों की

इस धृष्टता को जान पाती हूँ

चौंक कर उसे मिटा देती हूँ

(उसे मिटाते दुःख क्यों नहीं होता कनु!

क्या अब मैं केवल दो यन्त्रों का पुंज-मात्र हूँ?

- दो परस्पर विपरीत यन्त्र -

उन में से एक बिन अनुमति नाम लिखता है

दूसरा उसे बिना हिचक मिटा देता है!)



***

तीसरे पहर

चुपचाप यहाँ छाया में बैठती हूँ

और हवा ऊपर ताज़ी नरम टहनियों से,

और नीचे कपोलों पर झूलती मेरी रूखी अलकों

से खेल करती है

और मैं आँख मूंद कर बैठ जाती हूँ

और कल्पना करना चाहती हूँ कि

उस दिन बरसते में जिस छौने को

अपने आँचल में छिपा कर लायी थी

वह आज कितना, कितना, कितना महान हो गया है

लेकिन मैं कुछ नहीं सोच पाती

सिर्फ -

जहाँ तुम ने मुझे अमित प्यार दिया था

वहीं बैठ कर कंकड़, पत्ते, तिनके, टुकड़े चुनती रहती हूँ

तुम्हारे महान बनने में

क्या मेरा कुछ टूट कर बिखर गया है कनु!



वह सब अब भी

ज्यों का त्यों है

दिन ढले आम के नये बौरों का

चारों ओर अपना मायाजाल फेंकना

जाल में उलझ कर मेरा बेबस चले आना



नया है

केवल मेरा

सूनी माँग आना

सूनी माँग, शिथिल चरण, असमर्पिता

ज्यों का त्यों लौट जाना ........



उस तन्मयता में - आम-मंजरी से सजी माँग को

तुम्हारे वक्ष में छिपा कर लजाते हुए

बेसुध होते-होते

जो मैं ने सुना था

क्या उस में कुछ भी अर्थ नहीं था?
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