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|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
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<poem>
लगता है कुछ चटक रहा है मेरे भीतर
धीरे-धीरे
कोई घातक रोग छिपा बैठा है
पल रहा है
कुछ घुमड़ रहा है
चैन से बैठने नहीं देता
सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है।

लगता है चौराहों पर बतियाते लोग
पकड़ लिए जाएंगे
लगेगी माल रोड पर पाबंदी
पीटे जाएंगे बेगुनाह
छीन ली जाएगी बात कहने की आजादी
छीने जाएंगे मौलिक अधिकार
टेप किए जाएंगे सभी फोन
चारों ओर लगेंगे कैमरे
कुछ भी नहीं होगा गुप्त, अपना नहीं होगा
मौज मस्ती के लिये सरकारें
लगाएंगी भारी टैक्स
नीलाम की जाएगी जनता।

क्या अब आएगी क्रांति
हिलेंगे सिंहासनों को पकड़ बैठे
निष्क्रिय लोग
क्या कुछ बदलेगा!
अभी तो फिलहाल
सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है।

बच्चे जिस से खेल रहे हैं
वह गेंद नहीं है
बूढ़े जो लाठी लिये चले हैं
उसके भीतर गुप्ती है
युवाओं के हाथ खाली हैं
इसलिए फिलहाल
सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है।

</poem>
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