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जन्म दिन पर / सुदर्शन वशिष्ठ

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<poem>
छोड़े गये उम्रों के कैदी
बाँटी गई खैरात गरीबों में
साहित्यकारों ने गाई प्रशस्तियां
शायरों ने पढ़े कसीदे
कलाकारों ने नाचे नाच
दरबारियों ने दी बधाइयां।

झुग्गी झोंपड़ियों के बच्चे
नहलाए गए डिटौल से
पहनाए गए उधार के कपड़े
हाथ में दिया गया एक-एक अधिखला फूल
कड़ी सुरक्षा के बीच उन्होंने दी बधाई
बच्चों ने देखा एक आदमी जैसा आदमी
जो पेंट नहीं पहनता था
फिर भी था शायद बहुत अमीर
रहता था महलों में
रक्षा करते थे उसकी कद्दावर सिपाही
छोटे बच्चों को और छोटे कर गया
झोंपड़ी में रहने का आहसास।

यह भी उन का जन्मदिन था
बच्चे उन्हें भी प्यारे थे
बच्चे उनके पास भी बुलाए गये
ये गरीब थे या अमीर पता नहीं
वे गरीब या अमीर होते भी नहीं
उन्हें अपने जन्म दिन पर न सही
बड़े लोगों के जन्मदिन पर खुश होना है।

अपने जन्म दिन पर बच्चों के सामने
उन्होंने उड़ाए शांति के कबूतर
जो आसमान में चले गये बहुत दूर
जब वापस आये तो
बम बन कर गिरे धरती पर
वे तो छिप गये खंदकों में अंगरक्षकों सहित
बच्चे धराशायी हो गए।

यह भी उनका जन्मदिन था
जहां महिलाएं भी आईं बच्चों के साथ
महिलाओं ने अपने अधिकारों की बात की
नारे लगाए
और घर जा कर अपने पति पतियाये
चूल्हे जलाए

यह भी उनका जन्मदिन था
वे फेंकते थे ब्रेड
जो बिखर जाती थी
टुकड़ टुकड़े होकर
फेंते जाते थे गले से उतार
पार्टी का पटका
जिनका नहीं बना पाता था अंगोछा
इससे तो पार्टी के बैनर ही अच्छे
इससे पाजामा तो सिल जाता था
उन्होंने बांटे मीठे शब्द
जब कि जनता को चाहिए था अंगोछा।
कहते प्रजातंत्रों में
बादशाह नहीं होता कोई
आदमी होते हैं हम आप की तरह सभी
किसान, मजदूर, मास्टर बगैरा
कोई भी बन सकता है प्रधानमंत्री

फिर क्यों मनाते हैं जन्मदिन
क्यों बांटते हैं खैरात
क्यों चाहते हैं कि बच्चे खुशी मनाएं
जब कि बच्चे नहीं जानते
आज उन का जन्म दिन है।
</poem>
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