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22:08, 14 मार्च 2009
किन्तु राम की आँखें जैसे सफल सीप सी भर आईं।
चारु चंद्र की चंचल किरणें,<br>खेल रहीं थीं जल थल में।<br>स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी,<br>अवनि और अम्बर तल में।<br>पुलक प्रकट करती थी धरती,<br>हरित तृणों की नोकों से।<br>मानो झूम रहे हों तरु भी,<br>मन्द पवन के झोंकों से।<br><br>*
पंचवटी चारु चंद्र की छाया में हैचंचल किरणें,<br>सुन्दर पर्ण कुटीर बना।<br>खेल रहीं थीं जल थल में।जिसके बाहर स्वच्छ शिला परचाँदनी बिछी हुई थी,<br>धीर वीर निर्भीक मना।<br>अवनि और अम्बर तल में।जाग रहा है कौन धनुर्धरपुलक प्रकट करती थी धरती,<br>जब कि भुवन भर सोता है।<br>हरित तृणों की नोकों से।भोगी अनुगामी योगी सामानो झूम रहे हों तरु भी,<br>बना दृष्टिगत होता है।<br><br>मन्द पवन के झोंकों से।
पंचवटी की छाया में है,सुन्दर पर्ण कुटीर बना।जिसके बाहर स्वच्छ शिला पर,धीर वीर निर्भीक मना।जाग रहा है कौन धनुर्धर,जब कि भुवन भर सोता है।भोगी अनुगामी योगी सा,बना दृष्टिगत होता है। बना हुआ है प्रहरी जिसका,<br>उस कुटिया में क्या धन है।<br>जिसकी सेवा में रत इसका,<br>तन है, मन है, जीवन है। <br/poem>