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|संग्रह=
}}
[[Category: कविता]]
<poem>
रात रात भर
शब्‍द
रेंगते रहते हैं मस्तिष्‍क में
नींद और जागरण की धुंधली दुनिया में
फँसा मैं
रच नहीं पाता कविता
रात रात भर<br>शब्‍द <br>पक्षियों की कताररेंगते रहते हैं मस्तिष्‍क आसमान में<br>गुज़रती जाती हैनींद और जागरण की धुंधली दुनिया में<br>चांदफँसा मैं<br>यूँ ही ताकता रहता है धरती कोरच नहीं पाता और दोस्‍तलिखते रहते हैं कविता<br><br>नीली और गुलाबी कापियों पर
पक्षियों की कतार<br>वे भरती जाती हैंआसमान में गुज़रती भर जाती है<br>और चांद <br>यूँ ही ताकता रहता है धरती को<br>और दोस्‍त<br>लिखते रहते हैं कविता<br>एक रातनीली टूटी हुई नींद और गुलाबी कापियों पर<br><br>अधूरे सपनों से
वे भरती जाती हैं<br>सूरज के अग्निगर्भ में पिघलती रहती हैभर जाती हैं एक रात<br>टूटी हुई नींद मेरी तलहथियों का पसीनासूख जाता हैआंखों में पसर जाती है उदासीऔर रात सुलग रही होती हैमेरे अधूरे सपनों से<br><br>मेंसड़े पानी सी गंधाती रहती हैं स्‍मृतियाँभाप उठती रहती है
सूरज के अग्निगर्भ में पिघलती रहती निस्‍तब्‍ध शांति है<br>चारों ओररात<br>कि एक पत्‍तामेरी तलहथियों का पसीना <br>भी नहीं खड़कतासूख जाता है<br>जैसे पृथ्‍वी अचानक भूल गयी हो घूमनाआंखों जैसे दुनिया में पसर जाती है उदासी<br>किसी भूकंपऔर रात <br>किसी ज्‍वालामुखी के फटनेसुलग रही होती है <br>किसी समंदर के उफनने मेरे अधूरे सपनों में<br>किसी पहाड़ के ढहने कीसड़े पानी सी <br>गंधाती रहती हैं स्‍मृतियाँ<br>भाप उठती रहती है <br><br>कोई आशंका ही ना बची हो
निस्‍तब्‍ध शांति भय होता है चारों ओर<br>कि एक पत्‍ता<br>भी नहीं खड़कता<br>जैसे पृथ्‍वी अचानक भूल गयी हो घूमना<br>जैसे दुनिया में किसी भूकंप<br>किसी ज्‍वालामुखी के फटने<br>किसी समंदर के उफनने <br>किसी पहाड़ के ढहने की<br>कोई आशंका ही ना बची हो<br><br>ऐसी शांति से
भय होता है ऐसी शांति से<br><br>कोई बिल्‍ली ही आएया कोई चूहा गिरा जाएपानी का गिलासकुछ तो हिले बदले कुछ
कोई बिल्‍ली ही आए<br>या कोई चूहा गिरा जाए <br>पानी का ग्‍लास<br>कुछ तो हिले बदले कुछ<br><br> चिचियाते पक्षी बदलते जाते हैं<br>इंसानों में<br>सूरज का रंक्तिम लाल रंग<br>फैलता जाता है आसमानों में चारो ओर<br>पर कलियाँ <br>गुस्‍से में बंद हों जैसे और<br>फूलों में तब्‍दीली से इनकार हो उन्‍हें...<br/poem>
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