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Kavita Kosh से
न घास ही जमती है।<br><br>
:::जमती है सिर्फ बर्फ,<br>:::जो, कफन की तरह सफेद और,<br>:::मौत की तरह ठंडी होती है।<br>:::खेलती, खिल-खिलाती नदी,<br>:::जिसका रूप धारण कर,<br>:::अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।<br><br>
ऐसी ऊँचाई,<br>
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,<br><br>
:::किन्तु कोई गौरैया,<br>:::वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,<br>:::ना कोई थका-मांदा बटोही,<br>:::उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।<br><br>
सच्चाई यह है कि<br>
आकाश-पाताल की दूरी है।<br><br>
:::जो जितना ऊँचा,<br>:::उतना एकाकी होता है,<br>:::हर भार को स्वयं ढोता है,<br>:::चेहरे पर मुस्कानें चिपका,<br>:::मन ही मन रोता है।<br><br>
जरूरी यह है कि<br>
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br><br>
:::किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br>:::कि पाँव तले दूब ही न जमे,<br>:::कोई कांटा न चुभे,<br>:::कोई कलि न खिले।<br><br>
न वसंत हो, न पतझड़,<br>
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।<br><br>
:::मेरे प्रभु!<br>:::मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,<br>:::गैरों को गले न लगा सकूँ,<br>:::इतनी रुखाई कभी मत देना।<br><br>