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संश्लेषित जीवन मधुवन को खंड खंड मत कर सबसे सकता भाग स्वयं से भाग कहाँ सकता मधुकर मधुप दृष्टि भाग भाग कर रीता ही सृष्टि तुम्हारी वह मरुभूमि वही रीता रह जायेगा निर्झर तुम्हें निहार रहा स्नेहिल दृग सर्व सर्वगत नट नागर कुछ होने कुछ पा जाने की आशा में बॅंध मर न विकलटेर रहा आनन्दतरंगा स्वात्मानुशिलिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।51।।मुरलीधर।।26।।
साध न यदि तोड़ना मूढ़ कुछ बस साध यही साधना साध्य सच्चा है तो तोड़ स्वमूर्च्छा ही मधुकर यह सच्ची चेतना उतर बन जाती है जागृति जड़ताओं के तृण तरु दल से रुद्ध प्राण जीवन निर्झर वह है ही बस वह ही तो है अलि यह प्रेम समाधि भली शुचि जागरण सुमन परिमल से सुरभित कर जीवन पंकिल टेर रहा अमितानुरागिणी है पूर्णानन्दा मुरली तेरा मुरलीधर।।52।।मुरलीधर।।27।।
कोटि कला क्या ‘मैं’ के अतिरिक्त उसे तूँ अर्पित कर भी निज छाया पकड़ न पायेगा सकता मधुकरसच्चे पद में ही मिट पातीं सब काया छाया शेष तुम्हारे पास छोड़ने को क्या बचा विषय निर्झर फंस संकल्प विकल्पों में क्यों झेल रहा संसृति पीड़ा‘मैं’ का केन्द्र बचा कर पंकिल कुछ देना भी क्या देना टेर रहा है निर्विकल्पिका अहिअहंमर्दिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।53।।मुरलीधर।।28।।
गिरि श्रृंगों को तोड़ फोड़ कर भूमि गर्भ मंथन किसे मिटाने चला स्वयं का ‘मैं’ ही मार मलिन मधुकर सूर्य चन्द्र तक पहुंच चीर कर नभ में मेघ पटल एकाकार तुम्हारा उसका फिर हो जायेगा निर्झर उषा निशा सब दिशाकाल शब्द शून्यता में मतवाला बन ढूँढ़ उसे सुन कैसी मधुर बज रही है वंशीटेर रहा है प्राणप्रमथिनी विक्षेपनिरस्ता मुरली तेरा मुरलीधर।।54।।मुरलीधर।।29।।
विषय अनल क्षुधा पिपासा व्याधि व्यथा विभुता विपन्नता में जाने कब से दग्ध हो रहा तू मधुकर कृष्ण प्रेम आनन्द सुधामय परम रम्य शीतल निर्झर उसे भूल जग मरुथल में सुख चैन खोजने चले कहाँटेर स्पर्श कर रहा शाश्वतसुखाश्रया मुरली तेरा मुरलीधर।।55।। किससे मिलनातुर निशि वासर व्याकुल दौड़ रहा मधुकर सच्चे प्रभु के लिये न तड़पा बहा न नयनों से वही परमप्रिय सच्चा विविध वर्ण निर्झर व्यर्थ बहुत भटका उनके हित अब दिनरात बिलख पगलेटेर रहा वही वही संकल्पधनी है अश्रुमालिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।56।। सूर्यकान्तमणि सुभग सजाकर अम्बर थाली में मधुकर उषा सुन्दरी अरुण आरती करती उसकी नित निर्झर सिन्दूरी नभ से मुस्काता वह सच्चा सुषमाशाली सतरंगी झलमल झलमल टेर रहा है किरणमालिनि मुरली तेरा सर्वगोचरा मुरलीधर।।57।। उडुगण मेचक मोर पंख का गगन व्यजन ले कर मधुकर झलता पवन विभोरा रजनी पद पखारती रस निर्झर तारकगण की दीप मालिका सजा मनाती दीवाली टेर रहा ब्रह्माण्डवंदिता मुरली तेरा मुरलीधर।।58।। उडुमोदक विधु दुग्ध कटोरा व्योम पात्र में भर मधुकर सच्चे प्रिय को भोग लगाती मुदित यामिनी नित निर्झरकिरण तन्तु में गूंथ पिन्हाता हिमकर तारकमणिमाला टेर रहा संसृतिमहोत्सवा मुरली तेरा मुरलीधर।।59।। सरित नीर सीकर शीतल ले सरसिज सुमन सुरभि मधुकर करता व्यजन विविध विधि मंथर मलय प्रभंजन मधु निर्झर सलिल सुधाकण अर्घ्य चढ़ाता उमग उमग कर रत्नाकर टेर रहा आनन्दउर्मिला मुरली तेरा मुरलीधर।।60।।मुरलीधर।।30।।
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