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Kavita Kosh से
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी -कभी तो वो लम्हें बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ ख़ दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीं हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्ही उन्हीं की याद "ज़िगर"
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
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