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|रचनाकार=हिमांशु पाण्डेय
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अपनी ही विरचित कारा में बंधा तड़पता तू मधुकर
अपनी ही वासना लहर से पंकिल किया प्राण निर्झर
उस प्रिय की कर पीड़ा हरणी चरण कमल की सुखद शरण
टेर रहा है प्रीतिपंकिला मुरली तेरा मुरलीधर।।101।।

गीत वही तेरे अधरों पर स्वर उसका ही है मधुकर
नयन तुम्हारे हैं जो उनकी ज्योति वही पुतली निर्झर
भर आये दृग की भाशा का वह पढ़ पढ़ संवादी स्वर
टेर रहा है मर्मभेदिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।102।।

अधरों पर मुस्कान सजा भर नयनों में पानी मधुकर
अपने प्राणों के राजा को भेंज प्रेम पाती निर्झर
गीत अधर पर सुधि सिरहाने रोम रोम में भर सिहरन
टेर रहा है प्रीतिविह्वला मुरली तेरा मुरलीधर।।103।।

कहाॅं भाग कर जायेगा प्राणेश वाटिका से मधुकर
तुम्हें मिलेगा गीत सुनाता नित नित नवल नवल निर्झर
शरद शिशिर हेमन्त वसन्ती ऋतु रवि शशि में हो द्युतिमय
टेर रहा है विराटवपुशीला मुरली तेरा मुरलीधर।।104।।

उसके सरसिज पद परिमल से निज सिर पंकिल कर मधुकर
क्या पाया उसको न सोच क्या खोया यही देख निर्झर
रिक्त बनोगे तो पाओगे प्रियतम प्राण रसाकर्शण
टेर रहा है निरहंकारा मुरली तेरा मुरलीधर।।105।।
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