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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
अंबर-अंतर गल धरती का
अंचल आज भिगोता,
प्यार पपीहे का पुलकित स्वर
दिशि-दिशि मुखरित होता,
और प्रकृति-पल्लव अवगुंठन
फिर-फिर पवन उठाता,
यह मदमातों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
हैं अनगिन अरमान मिलन की
ले दे के दो घड़ियाँ,
झूल रही पलकों पर कितने
सुख सपनों की लड़ियाँ,
एक-एक पल में भरना है
युग-युग की चाहों को,
सखि, यह साधों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
बाट जोहते इस रजनी की
वज्र कठिन दिन बीते,
किंतु अंत में दुनिया हारी
और हमीं तुम जीते,
नर्म नींद के आगे अब क्यों
आँखें पाँख झुकाएँ,
सखि, यह रातों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
वही समय जिसकी दो जीवन
करते थे प्रत्याशा,
वही समय जिस पर अटकी थी
यौवन की सब आशा,
इस वेला में क्या क्या करने
को हम सोच रहे थे,
सखि, यह वादों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
अंबर-अंतर गल धरती का
अंचल आज भिगोता,
प्यार पपीहे का पुलकित स्वर
दिशि-दिशि मुखरित होता,
और प्रकृति-पल्लव अवगुंठन
फिर-फिर पवन उठाता,
यह मदमातों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
हैं अनगिन अरमान मिलन की
ले दे के दो घड़ियाँ,
झूल रही पलकों पर कितने
सुख सपनों की लड़ियाँ,
एक-एक पल में भरना है
युग-युग की चाहों को,
सखि, यह साधों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
बाट जोहते इस रजनी की
वज्र कठिन दिन बीते,
किंतु अंत में दुनिया हारी
और हमीं तुम जीते,
नर्म नींद के आगे अब क्यों
आँखें पाँख झुकाएँ,
सखि, यह रातों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।
वही समय जिसकी दो जीवन
करते थे प्रत्याशा,
वही समय जिस पर अटकी थी
यौवन की सब आशा,
इस वेला में क्या क्या करने
को हम सोच रहे थे,
सखि, यह वादों की रात नहीं सोने की;
सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की।