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झुककर
अपनी ही छाया के
हर वसंत में माँ की अपने आँगन के अमुवा की बातें
निपट जुगाली-सी लगती हैं
छुट्टी वाली सुबह हुई भी
दिनभर बंद निजी कमरों में
दो पल का भी चैन नहीं था
तब इस माँ को,
फुर्सत बेमानी लगती है
अपना होना भी बेमानी
अपने बच्चों में अनजानी
कान नहीं सुन पाते उतना
होठों की काली सुरखी है
कमर धरा की ओर झुकी है
सूने रस्ते
पाँव टोहती माँ के
चरणों में नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले.........।
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