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अल्लाह रे तेरी याद कि कुछ याद नहीं है॥
हमको मरना भी मयस्सर नहीं जीने के बग़ैर।
मौत ने उम्रे-दो रोज़ा का बहाना चाहा॥
बिजलियाँ शाख़े-नशेमन पै बिछी जाती है।
क्या नशेमन से कोई सोख्ता-सामाँ<ref>दग्धहृदय</ref> निकला?
‘फ़ानी’ की ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी यारब।
मौत और ज़िन्दगी में कुछ फ़र्क़ चाहिए था॥
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