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है दूर हरना तो उसे सकता नहीं कोई हिला |<br><br>
क्या बोलने के योग्य भी अब मैं नहीं लेखी गई?<br>ऐसी न पहले तो कभी प्रतिकूलता देखी गई!<br>वे प्रणय-सम्बन्धी तुम्हारे प्रण अनेक नए-नए,<br>हे प्राणवल्लभ, आज हा! सहसा समस्त कहाँ गए?<br>है याद? उस दिन जो गिरा तुमने कही थी मधुमयी,<br>जब नेत्र कौतुक से तुम्हारे मूँदकर मैं रह गई |<br>'यह पाणि-पद्म स्पर्श' मुझसे छिप नहीं सकता कहीं,<br>फिर इस समय क्या नाथ मेरे हाथ वे ही हैं नहीं?<br>एकांत में हँसते हुए सुंदर रदों की पाँति से,<br>धर चिबुक मम रूचि पूछते थे नित्य तुम बहु भाँति से ||<br>वह छवि तुम्हारी उस समय की याद आते ही वहीं,<br>हे आर्यपुत्र! विदीर्ण होता चित्त जाने क्यों नहीं ||<br>परिणय-समय मण्डप तले सम्बन्ध दृढ़ता-हित-अहा!<br>ध्रुव देखने को वचन मुझसे नाथ! तुमने था कहा |<br>पर विपुल व्रीडा-वश न उसका देखना मैं कह सकी<br>संगति हमारी क्या इसी से ध्रुव न हा! हा! रह सकी?<br>बहु भाँति सुनकर सु-प्रशंसा और उसमें मन दिए -<br>सुरपुर गए हो नाथ, क्या तुम अप्सराओं के लिए?<br>पर जान पड़ती है मुझे यह बात मन में भ्रम-भरी,<br>मेरे समान न मानते थे तुम किसी को सुंदरी ||<br>हाँ अप्सराएँ आप तुम पर मर रही होंगी वहाँ,<br>समता तुम्हारे रूप की त्रैलोक्य में रखी कहाँ?<br>पर प्राप्ति भी उनकी वहाँ भाती नहीं होगी तुम्हें?<br>क्या याद हम सबकी वहाँ आती नहीं होगी तुम्हें?<br>
यह भुवन ही इन्द्र कानन कर्म वीरों के लिए,<br>कहते सदा तुम तो यही थे - धन्य हूँ मैं हे प्रिये!<br>यह देव दुर्लभ, प्रेममय मुझको मिला प्रिय वर्ग है,<br>मेरे लिए संसार ही नंदन-विपिन है, स्वर्ग है ||<br>जो भूरि-भाग भरी विदित थी निरुपमेय सुहागिनी,<br>हे हृदय्वल्लभ! हूँ वही मैं महा हतभागिनी!<br>जो साथिनी होकर तुम्हारी थी अतीव सनाथिनी,<br>है अब उसी मुझ-सी जगत में और कौन अनाथिनी?<br>हा! जब कभी अवलोक कुछ भी मौन धारे मान से,<br>प्रियतम! मनाते थे जिसे तुम विविध वाक्य-विधान से |<br>विह्वल उसी मुझको अहा! अब देखते तक हो नहीं,<br>यों सर्वदा ही भूल जाना है सुना न गया कहीं ||<br>मैं हूँ वही जिसका हुआ था ग्रंथि-बंधन साथ में,<br>मैं हूँ वही जिसका लिया था हाथ अपने हाथ में;<br>मैं हूँ वही जिसको किया था विधि-विहित अर्द्धांगिनी,<br>भूलो न मुझको नाथ, हूँ मैं अनुचरी चिरसंगिनी ||<br>जो अन्गारागांकित रुचिर सित-सेज पर थी सोहती,<br>शोभा अपार निहार जिसको मैं मुदित हो मोहती,<br>तव मूर्ती क्षत-विक्षत वही निश्चेष्ट अब भू पर पड़ी!<br>बैठी तथा मैं देखती हूँ हाय री छाती कड़ी!<br>हे जीवितेश! उठो, उठो, यह नींद कैसी घोर है,<br>है क्या तुम्हारे योग्य, यह तो भूमि-सेज कठोर है!<br>रख शीश मेरे अंक में जो लेटते थे प्रीति से,<br>यह लेटना अति भिन्न है उस लेटने की रीति से ||<br>
कितनी विनय मैं कर रही हूँ क्लेश से रोते हुए,<br>सुनते नहीं हो किंतु तुम बेसुध पड़े सोते हुए!<br>अप्रिय न मन से कभी, मैंने तुम्हारा है किया,<br>हृदयेश! फिर इस भाँति क्यों निज हृदय निर्दय कर लिया?<br>होकर रहूँ किसकी अहो! अब कौन मेरा है यहाँ?<br>कह दो तुम्हीं बस न्याय से अब ठौर है मुझको कहाँ?<br>माता-पिता आदिक भले ही और निज जन हों सभी,<br>पति के बिना पत्नी सनाथा हो नहीं सकती कभी||<br>रोका बहुत था हाय! मैंने 'जाएये मत युद्ध में,'<br>माना न किंतु तुमने कुछ भी निज विपक्ष-विरुद्ध में|<br>हैं देखते यद्यपि जगत में दोष अर्थी जन नहीं,<br>पर वीर जन निज नियम से विचलित नहीं होते कहीं||<br>किसका करूंगी गर्व अब मैं भाग्य के विस्तार से?<br>किसको रिझाऊंगी अहो! अब नित्य नव-श्रृंगार से?<br>ज्ञाता यहाँ अब कौन है मेरे हृदय के हाल का?<br>सिन्दूर-बिन्दु कहाँ चला हा! आज मेरे भाल का?<br>हा! नेत्र-युत भी अंध हूँ वैभव-सहित भी दीन हूँ,<br>वाणी-विहित भी मूक हूँ, पड़-युक्त भी गतिहीन हूँ,<br>हे नाथ! घोर विडम्बना है आज मेरी चातुरी,<br>जीती हुई भी तुम बिना मैं हूँ मरी से भी बुरी||<br>जो शरण अशरण के सदा अवलम्ब जो गतिहीन के,<br>जो सुख दुखिजन के, यथा जो बंधू दुर्विध दीन के,<br>चिर शान्तिदायक देव हे यम! आज तुम, ही हो कहाँ?<br>लोगे ने क्या हा हन्त! तुम भी सुध स्वयं मेरी यहाँ?"<br>
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