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|रचनाकार=अली अख़्तर ‘अख़्तर’'अख़्तर'
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मेरी बला को हो, जाती हुई बहार का ग़म।
बहुत लुटाई हैं ऐसी जवानियाँ मैंने॥
उलट जायें सब अक़्लो-इरफ़ाँ की बहसें।
उठा दूँ अभी पर नक़ाबे-मुहब्बत॥
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