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|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल
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जो भी जितनी दूर तक आया, उसे आने दिया
भेद अपने दिल का उसने कब मगर पाने दिया!

उफ़ रे खामोशी! नहीं आती कोई आवाज़ भी
हमने हर पत्थर से अपने सर को टकराने दिया

बेसुधी में काटता चक्कर रहा फिर रात भर
अपने होंठों तक ये प्याला तुमने क्यों आने दिया!

आँधियों! हाज़िर है अब यह फूल झड़ने के लिये
यह मिहरबानी बहुत थी, हमको खिल जाने दिया

प्यार करने का भी उनका ढंग है अच्छा, गुलाब!
ऐसे नाजुक फूल को काँटों से बिंधवाने दिया
<poem>
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