भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दांपत्य / सरोजिनी साहू

1,414 bytes added, 10:17, 17 अगस्त 2009
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोजिनी साहू }} <poem> हम दोनों बैठे थे चुपचाप दिन ब...
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सरोजिनी साहू
}}
<poem>

हम दोनों बैठे थे चुपचाप
दिन बीता, साँझ हुई
साँझ बीती, रात हुई
पंछी लौट चले अपने घोंसले में
चाँद निकलने वाला था,
हमें मालूम न था
शुक्लपक्ष था या कृष्णपक्ष था .

हम दोनों बैठे थे चुपचाप
चारों तरफ सरीसृप,कीडे-मकोडे घेरे हुए थे हमें
लता-गुल्मों की तरह,
उस ओर हमारी नज़र न थी
अँधेरा गहराता गया,
और अब एक-दूसरे को देखना भी संभव न था.

फिरभी दोनों बैठे रहे, चुपचाप
क्योंकि एक की साँस दूसरी की पहचान थी.
हम बैठे थे
ओंस भिगाती गई,
कुहासा ढंकता गया,
पावों से हम जमते गए,
बर्फ बनने के पहले देखा,
किसी ने मेरी हथेली पर अपना हाथ रखा.